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________________ यह टीका बाहरी ग्रंथ की सहायता से शीलांकाचार्य ने पूरी की एवं अपने प्रयास के पुण्य को भव्यजनों को अज्ञानान्धकार दूर करने के लिए प्रदान की है। - मुनि धर्मसिंह कृत्त बालावबोध अप्रकाशित है । लेकिन अनुमानतः यह कहा जा सकता है कि सूत्र एवं संस्कृत टीका में वर्णित विषय को सरल लोकभाषा में प्रस्तुत किया होगा। स्थानांग- इस पर संस्कृत और लोकभाषा में टीकाएं लिखी गई हैं। उनके रचयिता क्रमशः श्री अभयदेवसूरि एवं मुनि धर्मसिंह हैं। . अभयदेव सूरि रचित संस्कृत टीका स्थानांग के मूल सूत्रों पर है, लेकिन शब्दार्थ तक सीमित न रहकर टीकाकार ने सूत्र संबद्ध प्रत्येक विषय का आवश्यक विवेचन किया है । वर्णन में दार्शनिक विचारों एवं सैद्धांतिक दृष्टियों का स्पष्टीकरण किया गया है, जिसमें टीकाकार की शास्त्र मर्मज्ञता, पांडित्य आदि स्पष्ट झलकते हैं । प्रारंभ में टीकाकार ने भगवान महावीर को नमस्कार करके स्थानांग का विवेचन करने की प्रतिज्ञा की है। आचार्यश्री ने सत्रस्पर्शी टीका में निक्षेप पद्धति का भी उपयोग किया है । उसमें नियुक्तियों और भाष्यों की शैली स्पष्ट झलकती है । उन्होंने अपने कथन को स्पष्ट करने के लिए यत्र तत्र दृष्टांत रूप में संक्षिप्त कथानक भी दिए हैं, लेकिन जहाँ कहीं भी दार्शनिक विवेचन का प्रसंग प्राप्त हुआ, वहाँ उस पर पूर्णरूपेण विवेचन किया है । जैसे ‘एगे आया' का व्याख्यान करते हुए अनेक दृष्टियों से आत्मा की एकता-अनेकता सिद्ध की है । आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व की सिद्धि करते हुए विशेषावश्यक भाष्य की एतद् विषयक गाथाएँ उद्धृत की है एवं अन्यान्यं ग्रंथों के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। उद्धरणों में ग्रंथों या ग्रंथकारों के नामों का उल्लेख न करके जगह-जगह तथाहि, यदुक्त तथा उक्तं च आदि शब्दों का प्रयोग करके ग्रंथावतरणओं का उल्लेख किया वृत्ति के अंत में आचार्य ने अपना सानुप्रासिक परिचय देते हुए बताया है कि मैंने यह टीका यशोदेव गणि की सहायता से पूर्ण की है । यह टीका वि.स. ११२० में लिखी गई । टीका का ग्रंथमान १४२५० श्लोक प्रमाण है। लोकभाषा टीका अप्रकाशित है समवायांग-इसकी भी संस्कृत टीका अभयदेवसूरि द्वारा लिखी गई है । मुनि धर्मसिंह ने भी लोकभाषा टीका लिखी है, जो अप्रकाशित है। टीका के प्रारंभ में आचार्य अभयदेवसूरि ने वर्धमान महावीर को नमस्कार किया है। प्रारंभ में समवाय का अर्थ बताया है कि समवाय में तीन पद हैं- सम् + (१३८)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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