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प्रसंग में आचार्य मलयगिरि के संबंध में कुछ बातों का उल्लेख किया है । उनसे ज्ञात होता है कि आचार्य मलयगिरि कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य के समकालीन थे। आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन होने से मलयगिरि का समय वि.स. ११५० से १२५० के लगभग मानना चाहिए।
__मलयगिरि ने कितने टीकाग्रंथ लिखे, इसका स्पष्ट उल्लेख तो नहीं है, लेकिन उनके जितने ग्रंथ इस समय उपलब्ध है तथा जिन ग्रंथों के नामों का उल्लेख उन्होंने अपने ग्रंथों में किया है, परंतु जो अनुपलब्ध है, उन सबका ग्रंथमान करीब ढाई लाख श्लोक प्रमाण होना चाहिए, क्योंकि उपलब्ध ग्रंथों का प्रमाण ही दो लाख श्लोकों के करीब है तो शेष अनुपलब्ध ग्रंथों के प्रमाण को पचास हजार श्लोक नहीं मानने के लिए कोई अवकाश नहीं रहता । अनुपलब्ध ग्रंथों की संख्या साठ है, जिनमें आगमिक टीका ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं-१. भगवती (द्वितीय शतक), २. राजप्रश्नीय, ३. जीवाभिगम, ४. प्रज्ञापना, ५. चंद्रप्रज्ञप्ति, ६. सूर्यप्रज्ञप्ति, ७. नंदीसूत्र, ८. व्यवहार सूत्र, ९. बृहत्कल्प और १०. आवश्यक।
मलधारी हेमचन्द्र सूरि का परिचय इस प्रकार है
उनका गृहस्थाश्रम का नाम प्रद्युम्न था। वे राज्यमंत्री थे। अपनी चार पत्नियों का और राज्य मंत्री पद का त्यागकर वे मलधारी अभयदेव सूरि के पास दीक्षित हुए थे। इन दोनों आचार्यों के प्रभावशाली जीवन चरित्र का वर्णन मलधारी हेमचंद्र सूरि के ही शिष्य श्री चंद्रसूरि ने अपने मुनिसुव्रत चरित्र की प्रशस्ति में किया है । हेमचन्द्र सूरि का परिचय देते हुए उन्होंने कहा है कि श्री हेमचंद्रसूरि आचार्य अभयदेव के बाद हुए। वे अपने युग में प्रबंध पारगामी और वचनातिशय से सम्पन्न थे। भगवती जैसा शास्त्र तो उन्हें अपने नाम की भाँति कंठस्थ था।
उनके तीन प्रमुख शिष्य थे-विजयसिंह, श्रीचंद और विबुधचंद्र । इनमें से श्रीचंद पट्टधर आचार्य हुए। . आचार्य विजयसिंह ने धर्मोपदेश माला की बृहवृत्ति लिखी है। उसकी समाप्ति वि.स. ११९१ में हुई। उसकी प्रशस्ति में अपने गुरु हेमचंद्रसूरि और उनके गुरु आचार्य अभयदेव सूरि का जो परिचय दिया है, उससे मालम होता है कि वि.स. ११९१ में आचार्य हेमचंद्र सूरि के स्वर्गवास को काफी वर्ष व्यतीत हो चुके थे। ऐसी स्थिति में यह माना जा सकता है कि अभयदेव सरि का स्वर्गवास होने पर अर्थात् वि.स. ११६८ में हेमचंद्रसूरि ने आचार्य पद प्राप्त किया और लगभग वि.स: ११८० तक उन्होंने उस पद को सुशोभित किया। क्योंकि उनके ग्रंथांत की किसी भी प्रशस्ति में वि.स. ११७७ के बाद के वर्ष का उल्लेख नहीं मिलता।
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