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था और प्रमाण शास्त्र का अभ्यास कराया था। एक बार जब विजयसिंह सूरि इन्हें अभ्यास करा रहे थे, उस समय मुनिचंद्र सूरि भी वहाँ उपस्थित थे। वे नाडोल से विहार कर पाटन आए थे। उन्होंने पंद्रह दिन क खड़े-खड़े ही पाठ सुना । सोलहवें दिन सब शिष्यों के साथ उनकी भी परीक्षा ली गई । मुनिचंद्र सूरि की बौद्धिक प्रतिभा से प्रभावित होकर शांतिसूरि ने उनको अपने पास रख लिया और प्रमाण शास्त्र का विशेष अभ्यास कराया।
शांतिसूरि ने उत्तराध्ययन टीका के अतिरिक्त धनपाल की तिलकमंजरी पर भी एक टिप्पण लिखा है । वह आज भी पाटन के ज्ञान भण्डार में विद्यमान हैं । जीवविचार प्रकरण और चैत्यवन्दन महाभाष्य भी इन्हीं की रचना मानी जाती है।
जीवनान्त वेला में गिरनार में आकर इन्होंने संलेखना ग्रहण की और वि.स. १०८९ ज्येष्ठ शुक्ला नवमी मंगलवार को देह त्याग किया।
विक्रय की बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी. के बीच सात प्रमुख टीकाकार आचार्य हुए हैं । उनमें से एक अभयदेव सूरि हैं । ये नवांगी टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने स्थानांग आदि समवायांग पर्यन्त नौ अंग आगमों एवं औपपातिक उपांग की टीकाएँ लिखी हैं। इनकी कुल रचनाओं का ग्रंथमान करीब साठ हजार श्लोक प्रमाण है।
अभयदेव सूरि का बाल्यकाल का नाम अभयकुमार था। वे धारा नगरी के सेठ धनदेव के पुत्र थे। उनके दीक्षांगुरु का नाम जिनेश्वर सूरि था। जिनेश्वर मरि वर्धमान सूरि के शिष्य थे। अभयकुमार का जन्म अनुमानतः वि.स. १०८८, दीक्षा संवत् ११०४, आचार्य पद एवं टीकाओं का प्रारंभ वि.स. ११२० और स्वर्गवास वि.स. ११३५ या ११३९ माना जाता है।
. अभयदेवसूरि के अनन्तर टीकाकारों की परंपरा में आचार्य मलयगिरि और मलधारी हेमचंद्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इनके अतिरिक्त और भी टीकाकार आचार्य हुए हैं, जिनका परिचय यथास्थान दिया जा रहा है। __ आचार्य मलयगिरि की प्रसिद्धि टीकाकार के रूप में है, न कि ग्रंथकार के रूप में। इन्होंने आगम ग्रंथों पर अंतिम महत्वपूर्ण टीका ग्रंथ लिखे हैं। इन टीकाओं में इनकी विद्वता, भाषा की प्रासादिकता, शैली की प्रौढ़ता एवं निरूपण की स्पष्टता झलकती है। ___आचार्य मलयगिरि ने अपने टीका ग्रंथों में अपना कुछ भी परिचय न देकर सिर्फ नाम का उल्लेख मात्र किया है। लेकिन पंद्रहवीं शताब्दी के एक ग्रंथकार जिनमंडन गणि ने अपने कुमारपाल प्रबंध में आचार्य हेमचंद्रसूरि की विद्या साधना के
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