SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाष्यकारों के नामों का पता अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है । यह तो निश्चित है कि इन दो भाष्यकारों के अतिरिक्त अन्य भाष्यकार भी हुए हैं। जैसे कि व्यवहार भाष्य आदि के कर्ता और चार बृहत् कल्प भाष्य आदि के रचयिता । प्रथम दो भाष्यकारों के नाम तो ज्ञात है, लेकिन बृहतकल्प भाष्य के प्रणेता, जिनका नाम अभी तक ज्ञात नहीं है, वे बृहतकल्प चूर्णिकार और बृहतकल्प विशेष चूर्णिकार के भी बाद में हुए हैं। इसका कारण यह है कि बृहतकल्प लघु भाष्य की १६६१ वीं गाथा में प्रतिलेखना के समय का निरूपण किया गया है, उसका व्याख्यान करते समय चूर्णिकार और विशेष चूर्णिकार ने जिन आदेशान्तरों का अर्थात् प्रतिलेखना के समय से संबंध रखने वाली विविध मान्यताओं का उल्लेख किया है, उनसे भी और अधिक नई-नई मान्यताओं का संग्रह बृहतकल्प बृहद्भाष्यकार ने उपर्युक्त गाथा से संबंधित महाभाष्य में किया है, जो आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित पंच वस्तुक प्रकरण की स्वोपज्ञवृत्ति में उपलब्ध है । इससे ज्ञात होता है कि बृहदकल्प बृहद्भाष्य के प्रणेता बृहत्कल्पचूर्णि तथा विशेष चूर्णि के प्रणेताओं के पश्चात् हुए हैं। ये आचार्य हरिभद्र सूरि के कुछ पूर्ववर्ती या समकालीन हैं । व्यवहार भाष्य के प्रणेता कौन हैं ? इस बात का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है और वे कब हुए हैं ? इतना होते हुए भी यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि व्यवहार भाष्यकार जिनभद्रगणि से वे पूर्ववर्ती हैं। इसका प्रमाण यह है कि आचार्य जिनभद्र ने अपने विशेषणवती ग्रंथ में व्यवहार के नाम के साथ जिस विषय का उल्लेख किया है, वह व्यवहार सूत्र के छठे उद्देश्य के भाष्य में उपलब्ध होता है । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यवहार भाष्यकार आचार्य जिनभद्र से भी पहले हुए हैं । इस प्रकार चार भाष्यकारों में से दो का निश्चित नाम व समय ज्ञात न होने से हमें यह मानकर चलना पड़ेगा कि वे हुए अवश्य हैं, क्योंकि उनकी कृतियाँ विद्यमान हैं और अशिष्ट रहे दो भाष्यकार जिनभद्र गणि और संघदास गणि हैं । उनके बारे में उपलब्ध जानकारी हम यहाँ प्रस्तुत करते हैं । यद्यपि अपने महत्वपूर्ण ग्रंथों के कारण आचार्य जिनभद्र गणि का नाम जैन परंपरा में अतिविशिष्ट है एवं उनका स्थान महत्वपूर्ण है, लेकिन उनके जीवन की घटनाओं के बारे में कोई प्रामाणिक सामग्री जैन ग्रंथों में देखने को नहीं मिलती है । उनके जन्म एवं शिष्यत्व के बारे में जो सामग्री मिलती है, वह बहुत प्राचीन नहीं है और परस्पर विरोधी भी हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र को पाट परंपरा में सम्यक स्थान नहीं मिला, लेकिन बाद में जब उनके महत्वपूर्ण ग्रंथों और उनके आधारों पर लिखे गए ग्रंथों को तत्कालीन संघ ने देखा, तब आचार्यों ने उन्हें उचित महत्व दिया एवं पाट परंपरा में सम्मिलित करने का प्रयास किया, लेकिन इस (१२३)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy