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________________ जाता है कि इन्होंने प्राकृत भाषा में भी ज्योतिष विषयक ग्रंथ की रचना की थी और वसुदेव चरित एवं हरिवंश की रचना का भी इन्हीं को श्रेय प्राप्त है, लेकिन ये ग्रंथ अनुपलब्ध है । उवसग्गहरं स्तोत्र की पाँच गाथाएँ हैं । इसकी रचना के संबंध में कहा जाता है कि सहोदर वराहमिहर मृत्यु के बाद व्यंतर देव होकर जैन संघ को कष्ट पहुँचाने लगा, तब उसके उपद्रव से संघ की रक्षा करने के लिए इस स्तोत्र की रचना की गई। इस स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ की प्रशंसात्मक स्तुति की गई है । वराहमिहर वि.स. ५६२ में विद्यमान थे, क्योंकि पंचसिद्धान्तिका के अंत में शक संवत् ४२७ अर्थात् वि.स. ५६२ का उल्लेख है । नियुक्तिकार भद्रबाहु का भी करीबन यही समय है । अतः नियुक्तियों का रचनाकाल वि.स. ५०० और ६०० के बीच मानना चाहिए। नियुक्तिकार भद्रबादुह ने निम्नलिखित आगमों पर नियुक्तियाँ लिखी हैं १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. आचारांग, ५. सूत्रकृतांग, ६. दशाश्रुतस्कंध, ७. बृहतकल्प, ८. व्यवहार, ९. सूर्य प्रज्ञप्ति और १०. ऋषिभाषित । इन दस नियुक्तियों में से सूर्य प्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित की नियुक्तियाँ अनुपलब्ध हैं। ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, पंचकल्प नियुक्ति और निशीथ नियुक्ति क्रमशः आवश्यक नियुक्ति, दशवैकालिक नियुक्ति, बृहत कल्प नियुक्ति और आचारांग नियुक्ति की पूरक आचार्य भद्रबाहुकृत दस नियुक्तियों का रचनाक्रम वही है, जिस क्रम से ऊपर नाम दिए हैं। अपनी सर्वप्रथम नियुक्ति आवश्य नियुक्ति गाथा ८५-८६ में नियुक्ति रचना का संकल्प करते समय इसी क्रम से ग्रंथों की नामावली दी है। नियुक्तियों में उल्लिखित एक दूसरी नियुक्ति के नाम आदि के अध्ययन से भी यह प्रमाणित होता आचार्य भद्रबाहु ने जैन परंपरागत अनेक महत्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों की स्पष्ट व्याख्या अपनी आगमिक नियुक्तियों में की है। उनका आधार लेकर उत्तरवर्ती भाष्यादिकारों ने अपनी-अपनी कृतियों का निर्माण किया है। इसीलिए जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य भद्रबाहु का एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। भाष्यकार- जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि नियुक्तियों की रचना पद्धति गूढ़ एवं संकोचशील है । अतः उन गूढार्थों को प्रकट रूप में प्रस्तुत करने के लिए उत्तरवर्ती काल में आचार्यों ने जो व्याख्याएँ लिखीं, वे भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हुईं। नियुक्ति की तरह इनकी भाषा प्राकृत एवं शैली पद्यात्मक है। उपलब्ध भाष्यों के आधार से आचार्य जिनभद्रगणि और संघदास गणि इन दो भाष्यकारों के नाम का तो स्पष्ट रूप से पता चलता है। इनके अतिरिक्त अन्य (१२२)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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