________________
प्रयास में वास्तविकता की मात्रा अधिक नहीं थी और सभी उनको अपना बनाना चाहते थे, इसलिए उन उल्लेखों में मतभेद आना स्वाभाविक था । यही कारण है कि किसी ने यहाँ तक लिख दिया कि वे आचार्य हरिभद्र के पाट पर बैठे। ___डॉ. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने अक्कोटक-अंकोटा गाँव से प्राप्त दो प्रतिमाओं के अध्ययन के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ये प्रतिमाएँ ई.स. ५५०-६०० तक के काल की है। उन्होंने प्रतिमा लेखों के आधार से यह संकेत दिया है कि इनमें जिन आचार्य जिनभद्र का नाम है, वे विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण है । परंतु अभी तक यह निश्चय नहीं किया जा सका है कि ये वे ही हैं या अन्य कोई समान नामधारी आचार्य हैं।
आचार्य जिनभद्र कृत विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति शक संवत ५३१ में लिखी गई तथा वल्लभी के एक जैन मंदिर में समर्पित की गई। इस घटना से यह प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने मथुरा में देव निर्मित स्तूप के देव की आराधना एक पक्ष की तपस्या द्वारा की और दीमक द्वारा नष्ट किए गए महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया। इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र का वल्लभी के अतिरिक्त मथुरा से भी संबंध था। .
मुनिश्री जिनविजयजी ने जैसलमेर शास्त्र भण्डार में स्थित विशेषावश्यक भाष्य की प्रति के आधार पर आचार्य जिनभद्र का समय वि.स. ६६६ के आसपास माना है । लेकिन अभी यह समय विवादग्रस्त है। इस उल्लेख से इतना माना जा सकता है कि आचार्य जिनभद्र का उत्तरकाल वि.स. ६५०-६६० के आसपास रहा होगा।
भले ही आचार्य जिनभद्र को उनके समकालीनं संघ ने बहुमान न दिया हो, लेकिन उत्तरवर्ती काल के आचार्यों ने आचार्य जिनभद्र का बहुमानपूर्वक उल्लेख किया है। उनके लिए भाष्यसुधाम्भोधि, भाष्यपीयूषपयोधि, भगवान भाष्यकार, दुःषमान्धकार निमग्न जिनवचन प्रदीप प्रतिम, दलित कुवादि प्रवाद, प्रशस्य भाष्य, सस्यकाश्यपीकल्प, त्रिभुवन जन प्रथित, प्रवचनोपनिषद, वेदी, संदेह, संदोह, शैलशृंग भंगदम्भोलि आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
आचार्य जिनभद्र ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है
१. विशेषावश्यक भाष्य (प्राकृत पद्य), २. विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञवृत्ति, (संस्कृत वृत्ति अपूर्ण), ३. बृहत्संग्रहणी (प्राकृत पद्य), ४. बृहद क्षेत्र समास (प्राकृत पद्य), ५. विशेषणवती (प्राकृत पद्य), ६. जीत कल्प (प्राकृत पद्य), ७. जीतकल्प भाष्य (प्राकृत पद्य), ८. अनुयोग द्वारा चूर्णि (प्राकृत गद्य), ९. ध्यानशतक (प्राकृत पद्य), ध्यान शतक का कर्तृत्व संदिग्ध है।
(१२४)