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________________ वर गंधहस्ती, लोकोत्तम, लोकनाथ, लोकहितैषी, लोकप्रदीप, लोकप्रद्योतक, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, जीवनदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्मोपदेशक, धर्मनायक, धर्म सारथी और धर्मवर चतुरंत चक्रवर्ती श्री अरिहंतों को मैं नमस्कार करता हूँ। * चूलिका सूत्र ___नंदी और अनुयोग द्वार सूत्र चूलिका सूत्र कहलाते हैं । लोक व्यवहार में इस शब्द का अर्थ है-चूड़ा, चोटी, मस्तक का सबसे ऊँचा भाग, हिस्सा, पर्वत का शिखर, भवन का चरमान्त भाग । साहित्य में भी इसी आशय को ध्यान में रखकर चूलिका शब्द पुस्तक के उस भाग अथवा किसी समग्र ग्रंथ के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जिसमें उन अवशिष्ट विषयों का वर्णन या वर्णित विषयों का स्पष्टीकरण हो, जिनका समावेश ग्रंथ के किसी अध्ययन या अध्याय में नहीं किया जा सका है । इनमें मूल ग्रंथ के प्रयोजन भूत विषयों को दृष्टि में रखते हुए तत्संबद्ध आवश्यकताओं की जानकारी दी जाती है । परिशिष्ट चूलिका का रूपान्तर ही तो है, जिसका वर्तमान लेखक उपयोग करते हैं। ___ नंदीसूत्र और अनुयोग द्वार सूत्र इसी प्रकार के चूलिका, परिशिष्ट सूत्र हैं, जो आगमों के अध्ययन के लिए भूमिका निर्माण का कार्य करते हैं । यह कथन नंदी की अपेक्षा अनुयोग द्वार सूत्र के बारे में अधिक सत्य है । नंदीसूत्र में तो सिर्फ ज्ञान का ही विवेचन है, लेकिन अनुयोग द्वार में आवश्यक सूत्र की व्याख्या के माध्यम से प्रायः सभी आगमों के मूलभूत प्रतिपाद्य सिद्धांतों का स्वरूप समझाते हुए अवशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण कर दिया गया है, जो आगमों के अध्ययन के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य है एवं आगमों में यत्र तत्र सर्वत्र प्रयुक्त होते रहते हैं । अनुयोग द्वार को समझ लेने के बाद शायद ही आगमगत कोई पारिभाषिक शब्द रह जाता हो, जिसे जानने में पाठक को कोई असुविधा हो । यह सूत्र लक्षण कोष की उपयोगिता प्रकट करता है और आवश्यकता की पूर्ति करता है। सामान्य रूप में चूलिका सूत्रों की विशेषताओं को बतलाने के अनन्तर अब क्रमशः नंदी और अनुयोग द्वार सूत्र के वर्ण्य विषयों का संकेत करते हैं। १. नंदीसूत्र- इसमें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञान इन पाँचों ज्ञानों का विस्तार से वर्णन किया गया है । नियुक्तिसार आदि आचार्यों ने नन्दी शब्द को ज्ञान का ही पर्याय माना है। प्रारंभिक पचास गाथाएँ मंगलाचरणात्मक है । इनमें सर्वप्रथम सूत्रकार ने भगवान अर्हत् महावीर को नमस्कार किया है । तदन्तर जैन संघ, चौबीस जिन, ग्यारह गणधर, जिन प्रवचन तथा सुधर्म आदि स्थविरों को स्तुतिपूर्वक (१०८)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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