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________________ द्रुमपुष्पिका अध्ययन में धर्म को उत्कृष्ट मंगल बताते हए धर्म का स्वरूप तथा उसके आराधक श्रमण की भिक्षा विधि का संकेत है कि जैसे भ्रमर पुष्पों को पीड़ा पहुँचाए बिना उनमें से रस का पान कर अपने आपको तृप्त करता है, वैसे ही भिक्षु आहार आदि की गवेषणा में रत रहता है। दूसरे अध्ययन श्रामण्यपूर्विका में बताया है कि इंद्रिय भोगों को जो स्वेच्छा से त्याग देता है, वह त्यागी है। अगंधन कुल का नाग अग्नि में जलकर अपने प्राण त्याग देता है, पर वमन किए हुए विष का कभी पान नहीं करता, वैसे ही त्यागी पुरुष भुक्त भोगों को पुनः भोगने की आकांक्षा नहीं करता। उसे वैसी आकांक्षा करनी भी नहीं चाहिए । क्षुल्लिकाचार कथा में सामान्य साध्वाचार के वर्णन के साथं अनाचारों का संकेत एवं उनसे दूर रहने का उपदेश दिया है। षड्जीवनिका अध्ययन में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन षट्जीवनिकायों का स्वरूप बताकर पंच महाव्रतों का स्वरूप और मोक्षगति का क्रम बताया है। पिंडैषणा अध्ययन के दो उद्देशों में साधु की भिक्षाविधि का सूक्ष्मता के साथ उपयोगी वर्णन है । महाचार अध्ययन में साध्वाचार का विस्तृत वर्णन किया गया है। वाक्य शुद्धि अध्ययन में भाषा का स्वरूप तथा उसके गुण दोषों का विस्तृत विवेचन कर शुद्ध भाषा प्रयोग की शिक्षा दी गई है। विनय समाधि अध्ययन में अपने नाम के अनुसार विनय ही धर्म का मूल है, इस सिद्धांत को विविध रूपको एवं उपदेशों में भिक्षु में कौन सी योग्यता, विशेषता होनी चाहिए और भिक्षु कौन होता है ? उसकी योग्यता क्या होती है आदि का वर्णन है। . इसके अंत में रति वाक्य और विविक्तचर्या नामक दो चूलिकाएँ हैं। पहली चूलिका में संयम में प्रीति उत्पन्न करने वाले वाक्यों द्वारा हितशिक्षाओं का संकलन किया गया है और दूसरी विविक्तचर्या चूलिका में वर्णन है कि दोषों से दूर रहकर श्रमण आत्मगवेषणां के मार्ग पर कैसे आगे बढ़े । इन दोनों चूलिकाओं का आर्य शय्यंभवकृत होना अनिश्चित है। ३. आवश्यक सूत्र-साध्वाचार के लिए आवश्यक, अनिवार्य नित्य कर्म के प्रतिपादक क्रिया अनुष्ठान रूप कर्तव्यों का वर्णन आवश्यक सूत्र में किया गया है । इसके नामकरण का यही आधार है। इसके सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान ये छह अध्ययन हैं । इनमें अपने-अपने नाम के अनुरूप क्रिया विधियों को बताया है । अंतिम प्रत्याख्यान अध्ययन के अंत में बहुत ही भावपूर्ण, प्रांजल शब्दों में अरिहंतों का गुणानुवाद करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। वह इस प्रकार है..' आदिकर, तीर्थंकर, स्वयं संबुद्ध पुरुषोत्तम पुरुषसिंह, पुरुषवर पुण्डरीक, पुरुष . (१०७)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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