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________________ ३२. प्रमाद स्थान- सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह के त्याग से एवं राग-द्वेष के क्षय से एकान्त सुखकारी मोक्ष की प्राप्ति होती है । जैसे बिल्लियों के निवास स्थान के पास चूहों का रहना प्रशस्त नहीं है, वैसे ही स्त्रियों के निवास स्थान के पास ब्रह्मचारी का रहना उचित नहीं है। ३३. कर्म प्रकृति-जन्म-मरण के दुःखों का मूल कारण क्या है? वह कारण कर्म है। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के नाम, भेद, प्रभेद तथा उनकी स्थिति एवं परिणाम का संक्षिप्त वर्णन । __३४. लेश्या- लेश्याओं के नाम, लक्षण, उनके वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और परिणामों का वर्णन। ३५. अनगार- संयमी को हिंसा आदि पाँच पापों का त्याग करना चाहिए। श्मशान, शून्यागार, वृक्ष के नीचे अथवा दूसरे के निमित्त बनाए हुए एकान्त स्थान में रहना चाहिए । क्रय-विक्रय में साधु को किसी भी प्रकार का भाग नहीं लेना चाहिए। ३६. जीवाजीव विभक्ति- इसमें जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन छह द्रव्यों का भेद, प्रभेद, लक्षण आदि सहित वर्णन किया गया है। ऊपर उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों के वर्ण्य विषयों का संक्षेप में विहंगावलोकन मात्र किया गया है । विस्तृत ज्ञान के लिए ग्रंथ का पठन, अध्ययन, अध्यापन, पाठन, वांचन करना चाहिए। इसकी वर्णन शैली कथाच्छेदन का बालानां 'नीतिस्तदिह कथ्यते' की उक्ति को सार्थक करती है । ग्रंथ के अध्ययनों के नामकरण के आधार हैं, अध्ययनगत विवेचनीय विषय अथवा प्रमुख पात्र । २. दशवैकालिक सूत्र- उत्तराध्ययन सूत्र की तरह दशवैकालिक सूत्र भी मूलसूत्र हैं। आर्य शय्यंभव सूरि इसके कर्ता हैं । दस अध्ययनों में इस सूत्र की रचना होने के कारण और विकाल अर्थात् संध्या के समय पढ़े जाने के कारण इसका नाम दशवैकालिक सूत्र पड़ा। आचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति के अनुसार इसका चौथा अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व, पाँचवाँ अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व, सातवाँ अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व और शेष अध्ययन नौवें प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी वस्तु में से लिए गए हैं । दशवैकालिक के कतिपय अध्ययन और गाथाओं की तुलना उत्तराध्ययन एवं आचारांग सूत्र के अध्ययनों एवं गाथाओं से की जा सकती है। ____ दशवैकालिक सूत्र के दस अध्ययनों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-- १. द्रुमपुष्पिका, २. श्रामण्यपूर्विका, ३. क्षुल्लिकाचार कथा, ४. षडजीवनिका, ५. पिंडेषणा, ६. महाचार, ७. वाक्य शुद्धि, ८. आचार प्रणिधि, ९. विनय समाधि और १०. सभिक्षु । पिंडेषणा में दो और विनय समाधि में चार उद्देश हैं। .. . (१०६)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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