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________________ 1 / 1 प्रणाम किया है । इसी प्रसंग में स्थविरावली - गुरु शिष्य परंपरादि है, जो कल्पसूत्र की स्थविरावली के समान है । सामान्य से पाँचों ज्ञानों के नाम बताने के बाद उनके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद किए हैं। प्रत्यक्ष के पुनः इंद्रिय प्रत्यक्ष व अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष ये दो भेद किए हैं । इंद्रिय प्रत्यक्ष में स्पर्शन, रसन आदि पाँच इंद्रियों से होने वाले ज्ञान का समावेश है । जैन कथा शास्त्र में इस प्रकार के ज्ञान को सांख्य व्यावहारिकं प्रत्यक्ष कहा है । नोइन्द्रिय का अर्थ है - इंद्रिय भिन्न आत्मा । आत्म साक्षीजन्य ज्ञान - नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान है । इसमें अवधि, मनः पर्यय और केवल ज्ञान का समावेश होता है । परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का है । आभिनिबोधिक (मति) और श्रुत। इस प्रकार संक्षेप में ज्ञान के भेदों का उल्लेख करने के बाद प्रत्यक्ष वर्णगत अवधि, मन:पर्यय और केवल ज्ञान तथा इसके अनन्तर परोक्ष वर्गगत आभिनिबोधिक (मति) और श्रुत इस क्रम से प्रत्येक ज्ञान का सविस्तार विवेचन किया है। उसकी जानकारी आगे दी जा रही है। प्रस्तुत सूत्र की रचना गद्य-पद्य मिश्रित है तथा इसके प्रतिपादित विषयों के आधार हैं-प्रज्ञापना सूत्र, भगवती सूत्र और समवायांग सूत्र । वर्णन का प्रवाहक्रम इस प्रकार है - मंगलाचरण, मंगलाचरण के प्रसंग में स्थविरावली, श्रोता, श्रोताओं के भेद और उनके लिए दृष्टान्त, सभा, ज्ञानवाद की सामान्य भूमिका ( विषय प्रवेश), अवधिज्ञान, मनः पर्यय ज्ञान, केवलज्ञान, आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान, औत्पातिकी, वैनयिकी कर्मजा और पारिणामिकी इन चार प्रकार की बुद्धियों, श्रुतनिर्मित मविज्ञान और श्रुतज्ञान का वर्णन । ज्ञानवाद की सामान्य भूमिका में संक्षेप से मुनि आदि पाँचों ज्ञानों व उनके भेदों की जानकारी कराई है । इसके बाद प्रत्यक्ष ज्ञान के पहले भेद अवधिज्ञान का लक्षण, उसके भेद, पात्र, स्वामी आदि का विवेचन हैं । इसी प्रकार मन: पर्यय ज्ञान के विचार प्रसंग में भी लक्षण, भेद, स्वामी आदि को बताते हुए द्रव, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टियों से कुछ विशेष विचार किया गया है । मति ज्ञान के वर्णन में श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित ये दो मुख्य भेद करके पहले अश्रुत-निश्रित के औत्पातिकी बुद्धि आदि चारं भेदों का विचार किया है। अनन्तर श्रुतनिश्रित के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार मुख्य भेद करके इनका सूक्ष्म, तलस्पर्शी विचार करके तीन सौ छत्तीस प्रकार के मतिज्ञानों का वर्णन किया है। श्रुतज्ञान का लक्षण बतलाने के बाद उसके अक्षर श्रुत, अनक्षर श्रुत आदि चौदह भेदों को आधार बनाकर श्रुतज्ञान की सूक्ष्म चर्चा की है । इसी प्रसंग में अंगप्रविष्ट और अनंग प्रविष्ट आगमों का परिचय दिया है । नंदी सूत्र वर्ण्य विषय का परिचय देने के बाद अब क्रम प्राप्त अनुयोग द्वार सूत्र का परिचय देते हैं । 1 (१०९)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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