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________________ इस लघुकाय ग्रंथ में जैन आचार का विशेषता के साथ वर्णन किया गया है और साधु-साध्वी के जीवन व व्यवहार से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातों का सुनिश्चित विधान किया गया है। इस ग्रंथ में साध्वाचार से संबंधित जिस बात का उल्लेख नहीं हो सका है, उसका व्यवहार सूत्र में उल्लेख मिलता है । इस दृष्टि से ये दोनों ग्रंथ एक दूसरे के पूरक हैं। ४. निशीथ सूत्र - निशीथ शब्द का अर्थ है - प्रच्छन्न अर्थात् छिपा हुआ । इस शास्त्र में सबको नहीं बताने योग्य बातों का वर्णन है, इसलिए इस सूत्र का नाम निशीथ है । अथवा जिस प्रकार निशीथ अर्थात् कतकफल को पानी में डालने से मैल नीचे बैठ जाता है, उसी प्रकार इस शास्त्र के अध्ययन से भी आठ प्रकार के कर्मरूपी मल का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाता है । इसलिए इसे निशीथ कहते हैं । यह सूत्र नौवें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के बीसवें प्राभृत से उद्धृत किया गया है । इस छेदसूत्र में साधु-साध्वियों के लिए चार प्रकार के प्रायश्चितों गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरु चातुर्मासिक और लघु चातुर्मासिक के वर्णन के साथ-साथ आलोचना एवं प्रायश्चित करने के समय लगने वाले दोषों व उनके लिए विशेष प्रायश्चित की व्यवस्था का विवेचन किया गया है। व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देश में भी प्रायः इसी विषय पर प्रकाश डाला है । इस ग्रंथ में करीब पंद्रह सौ सूत्र और बीस उद्देश है। कुछ सूत्रों का तो पुनरावृत्ति होने की दृष्टि से सांकेतिक निर्देश कर दिया है। पहले उद्देश में गुरु मासिक प्रायश्चित कां, दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें उद्देश में लघुमासिक प्रायश्चित, छठे से लेकर ग्यारहवें उद्देश तक गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित का और बारहवें से लेकर उन्नीसवें उद्देश तकं लघु चांतुर्मासिक प्रायश्चित का वर्णन है । बीसवें उद्देश में केवल आलोचना एवं प्रायश्चित करते समय लगने वाले दोषों पर विचार करके उनके लिए विशेष प्रायश्चित की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक उद्देश विषय की रूपरेखा इस प्रकार है . प्रथम उद्देश में उन क्रियाओं का उल्लेख किया गया है, जिनके लिए गुरुमास अथवा मासगुरु' प्रायश्चित का विधान किया गया है । दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें उद्देश में मासलघु प्रायश्चित के योग्य क्रियाओं का उल्लेख किया गया है। छठें, सातवें और आठवें उद्देश में मैथुन संबंधी क्रियाओं का उल्लेख है, जो चातुर्मासिक प्रायश्चित के योग्य हैं । नौवां उद्देश भी गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित योग्य क्रियाओं १. उपवास २. एकाशन (९९).
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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