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________________ हताहतिका प्रकृत सूत्र में बताया है कि अपवाद रूप में यदि चोर वस्त्रादि उतार ले गए हों और वे वापस मिल गए हों तो उन्हें रात्रि के समय ले लेना चाहिए। अध्वगमन प्रकृत सूत्र में रात्रि को अथवा विकाल में साधु-साध्वी को विहार का निषेध किया है। विचार भूमि एवं विहार भूमि संबंधी सूत्र में बताया है कि रात्रि में साधु-साध्वी को उच्चार भूमि अथवा स्वाध्याय भूमि में अकेले जाना अकल्प्य है । आवश्यकता होने पर अन्य साधु-साध्वी को साथ लेकर निकलना चाहिए। आर्य क्षेत्र विषयक सूत्र में साधु-साध्वियों के विहार योग्य क्षेत्र की मर्यादा पर प्रकाश डाला है। द्वितीय उद्देश के पच्चीस सूत्रों में से आदि के बारह सूत्रों में उपाश्रय भूमि संबंधी वर्णन किया गया है। आगे के सूत्रों में बताया है कि एक या अनेक सागरिकोंवसति स्वामियों- उपाश्रय के मालिकों के यहाँ से साधु-साध्वियों को आहार आदि नहीं लेना चाहिए । विभिन्न दृष्टियों से उनके यहाँ से आहार आदि लेने के बारे में विचार किया गया है। साधु-साध्वियों को पाँच प्रकार के वस्त्र धारण करना कल्प्य है-जांगिक, भांगिक, सानक, पोतक और तिरीढ़पट्टक तथा पाँच प्रकार के रजोहरण रखना कल्प्य है-और्णिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चक, चिप्पक और मुंज चिप्पक। तृतीय उद्देश के इकतीस सूत्रों में से उपाश्रय संबंधी सूत्र में साधु को साध्वियों के उपाश्रय में उठना, बैठना, खाना, पीना, स्वाध्याय करना आदि तथा साध्वी को साधुओं के उपाश्रय में उठना-बैठना आदि क्रियाएँ करना अकल्प्य बताया है । कर्म विषयक सूत्रों में बताया है कि साधु-साध्वियों को रोमयुक्त, चर्मपट पर बैठना आदि अकल्प्य है । अकृत्स्त चर्म का उपयोग एवं संग्रह कर सकते हैं । वस्त्र विषयक सूत्रों में वस्त्रों के कल्प्याकल्प्य का विचार किया गया है । त्रिकृत्स्न विषयक सूत्र में नवदीक्षित साधु के और चतुःकृत्स्न विषयक सूत्र में नवदीक्षित साध्वी के वस्त्र की मर्यादा बताई है । साधु को तीन वस्त्र लेकर और साध्वी को चार वस्त्र लेकर प्रव्रजित होना चाहिए। समवसरण संबंधी सूत्र में बताया है कि साधु साध्वी को प्रथम समवसरण अर्थात् वर्षाकाल में स्त्र ग्रहण करना अकल्प्य है, किन्तु द्वितीय समवसरण अर्थात् हेमन्त, ग्रीष्म ऋतु में वस्त्र ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है । यथादलिक वस्त्र परिमार्जन प्रकृत सूत्र में साधु-साध्वी को छोटे-बड़े की मर्यादा के अनुसार वस्त्र विभाजन करने का विधान बताया है। अन्तर गृहस्थानादि प्रकृत सूत्र में साधु-साध्वी को गृहस्थ के घर के भीतर, दो घरों के बीच सोना-बैठना, अकल्प्य बताया है। शय्या संस्तारक संबंधी सूत्रों में बताया है कि साधु-साध्वी को वापस देने योग्य उपकरण मालिक को दिए बिना विहार नहीं करना चाहिए । इसी संबंधी अन्य बातों पर भी प्रकाश डाला है। (९७)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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