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लेना चाहिए । मासकल्प विषयक सूत्रों में बताया है कि साधु-साध्वी के लिए किस स्थान पर वर्षा ऋतु के चार माह को छोड़कर कितने दिन तक रहना कल्पता है । वगड़ा विषयक सूत्रों में यह बताया है कि एक परकोटे और एक द्वार वाले ग्राम आदि में साधु-साध्वी को एक साथ एक ही समय में रहने का निषेध किया गया है और अनेक परकोटे व द्वार वाले ग्रामादि में उनका एक साथ रहना कल्पता है । आपण गृहादि संबंधी सूत्रों में बताया है कि उन्हें कैसे उपाश्रय में रहना कल्प्य है । अपावृत द्वारोंपाश्रय विषयक सूत्रों में बताया गया है कि निर्ग्रथिनियों को बिना दरवाजे वाले खुले उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। यदि अन्य स्थान न मिले तो अपवादावस्था में परदा लगाकर रहना कल्प्य है । निग्रंथ रह सकते हैं। घटी मात्र प्रकृत सूत्रों में निर्ग्रन्थिनियों को घटी मात्रक (घड़ा) रखने एवं उसका उपयोग करने का विधान है, किन्तु निर्ग्रथों के लिए घट रखने एवं उसका उपयोग करने का निषेध बताया है । चिलिमिलिका प्रकृत सूत्र में निर्ग्रथ-निर्ग्रथिनियों को कपड़े का परदा रखने एवं उसका उपयोग करने की अनुमति प्रदान की गई है। तकतीर प्रकृत सूत्रों में तालाब आदि के समीप अथवा उनके किनारे रहना, बैठना, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि करना अकल्प्य बताया है । चित्रकर्म विषयक सूत्रों में चित्रकर्म युक्त उपाश्रय में रहने का निषेध किया गया है। सागरिक निश्रा विषयक सूत्रों में बताया है कि निर्ग्रथिनियों का सागरिक मकान मालिक की निश्रारक्षा
आदि की स्वीकृति के बिना कहीं पर भी नहीं जाना चाहिए। उन्हें उनकी निश्रा में रहना कल्प्य है । निग्रंथ सागरिक की निश्रा में अथवा अनिश्रा में रह सकते हैं । सागरिक परिश्रय प्रकृत सूत्रों में बताया है कि निग्रंथ की स्त्री सागरिक के उपाश्रय में रहना और निर्ग्रथिनी को पुरुष सागरिक के उपाश्रय में रहना अकल्प्य है । प्रतिबद्ध शय्या प्रकृत सूत्रों में बताया गया है कि यदि गृहस्थ उपाश्रय से सटे हुए रहते हो तो वहाँ साधु को रहना अकल्प्य है, किन्तु साध्वी रह सकती है । गृहपति कुल मध्यमवास विषयक सूत्रों में बताया है कि जिस स्थान पर जाने आने के लिए गृहस्थों के घरों में से आने-जाने का काम पड़ता हो, उस स्थान पर नहीं रहना चाहिए । अधिकरण से संबंधित सूत्र में बताया है कि यदि भिक्ष, आचार्य, उपाध्याय, भिक्षणी आदि का आपस में झगडा हो गया हो, तो परस्पर उपशम धारण कर उसे शान्त कर लेना चाहिए । चार संबंधी सूत्रों में श्रमण-श्रमणों को चातुर्मास काल में एक गाँव से दूसरे गाँव जाने का निषेध किया गया है । वैराज्य विषयक सूत्र में विरुद्ध राज्य में साधु-साध्वियों को आने जाने की मनाई की गई है। जो जाता है या अनुमोदन करता है, उसे चतुर्गुरु प्रायश्चित करना पड़ता है । रात्रिभक्त विषयक, रात्रि वस्त्रादि ग्रहण विषयक सूत्रों में साधु-साध्वियों को रात्रि में अथवा विकाल-असमय में आहार-वस्त्रादि ग्रहण करने का निषेध किया है।
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