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पाँचवें उद्देश में साध्वी का आचार, सूत्र भूलने पर भी स्थविर के पद की योग्यता, साधु, साध्वी के बारह संयोग, प्रायश्चित देने योग्य आचार्य आदि एवं साधु-साध्वी के परस्पर वैयावृत्त्य आदि बातों का वर्णन है। ..
छठे उद्देश में संबंधियों के यहाँ जाने की विधि, आचार्य, उपाध्याय के अतिशय, पठित-अपठित साधु संबंधी कामेच्छा का प्रायश्चित, अन्य गच्छ से आए हुए साधु-साध्वी विषयक बर्णन है।
सातवें उद्देश में संयोगी साधु-साध्वी का पारस्परिक आचार, किस अवस्था में किस साधु को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में विसंयोगी करना, साध का साध्वी को दीक्षा देना, साधु-साध्वी की आचार भिन्नता, रक्तादि के स्वाध्याय, साधु-साध्वी को पदवी देने का काल, एकाएक साधु-साध्वी की मृत्यु होने पर साधर्मिक साधुओं का कर्तव्य, साधु के रहने के स्थान को बेचने या किराए से देने पर शय्यातर संबंधी विवेक, राजा का परिवर्तन होने पर नवीन राज्याधिकारियों से आज्ञा माँगना आदि बातों का वर्णन
____आठवें उद्देश में चातुर्मास के लिए शय्या, पाटले आदि माँगने की विधि, स्थविर की उपाधि, प्रतिहारी, पाट-पाटले लेने की विधि, मूल उपकरण ग्रहण करने एवं अन्य के लिए उपकरण माँगने की विधि आदि का वर्णन है।
__ नौवें उद्देश में शय्यातर के अतिथि आदि का आहारादि ग्रहण तथा साधु की प्रतिमाओं की विधि का वर्णन है। . .
दसवें उद्देश में भव मध्य एवं वज्रमध्य प्रतिमाओं की विधि, पाँच व्यवहार, विविध चौभंगियाँ, बालक को दीक्षा देने की विधि, दीक्षा लेने के बाद कब सूत्र पढ़ना, दस प्रकार की वैयावृत्य से महानिर्जरा एवं प्रायश्चित का स्पष्टीकरण इत्यादि विषयों का वर्णन है। .
___३. वृहत कल्पसूत्र- 'कल्प' शब्द का अर्थ है-मर्यादा । श्रमण धर्म की मर्यादा का प्रतिपादक होने से इसका बृहत्कल्प यह नाम सार्थक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि छेद सूत्रों में बृहत्कल्प सूत्र का अति महत्वपूर्ण स्थान है । अन्य छेद सूत्रों की भाँति इसमें भी साधुओं के आचार विषय का विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपवाद, तप-प्रायश्चित आदि का विस्तार से विचार किया गया है । इसमें छह उद्देश है और यह गद्य शैली में लिखा गया है । इसका ग्रंथमान ४७५ श्लोक प्रमाण है । उनमें से प्रथम उद्देश में पचास सूत्र, द्वितीय उद्देश में पच्चीस सूत्र, तृतीय उद्देश में इकतीस सूत्र, चतुर्थ उद्देश में सैंतीस सूत्र, पंचम उद्देश में बयालीस सूत्र और छठे उद्देश में बीस सूत्र हैं। प्रथम उद्देश के पहले पाँच सूत्रों में बताया है कि श्रमण को फल आदि कैसे
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