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________________ और काल आदि का वर्णन है । प्रयोग पद में योग के पन्द्रह भेद, विहायोगति के सतरह भेद आदि का निरूपण किया गया है । लेश्या पद में लेश्याओं का स्वरूप, जीवों का समान आहार, शरीर, उच्छ्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना और क्रिया आदि का विचार है तथा लेश्याओं के परिणाम और वर्ण आदि का भी निरूपण किया गया है। कायस्थिति पद में जीवों की कायस्थिति का वर्णन है । सम्यक्त्व पद में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि जीवों का वर्णन है । अन्तक्रिया पद में अनन्तरागत, परंपरागत, अन्तक्रिया, केवली कथित धर्म, असंयत, भव्य देवों आदि के उपघात संबंधी विचार हैं। अवगाहना-संस्थान पद में पाँच शरीरों के संस्थान, परिमाण, पदगलों का चयोपचय, शरीरों का पारस्परिक संबंध, अल्पबहुत्व आदि का विस्तार सें'निरूपण है। क्रिया पद में कायिकी आदि क्रियाओं का वर्णन है । कर्म प्रकृति पद में ज्ञानावरण आदि कर्मों की प्रकृतियों, उनके बँधने के कारण, स्थान और वेदन की प्रक्रिया, विपाक रूप. स्थिति, बंधस्वामित्व आदि का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है । कर्म पद में बताया गया है कि ज्ञानावरण आदि कर्म बाँधते समय दूसरी कितनी प्रकृतियों का बंध होता है। पच्चीस से लेकर छत्तीस तक बारह पदों का वर्ण्य विषय इस प्रकार है कर्मवेदक पद में बताया गया है कि ज्ञानावरणादि कर्म बाँधते समय जीव कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है । वेद बंधक पद में बताया है कि ज्ञानावरणादि प्रकृतियों का वेदन करता हुआ जीव कितनी प्रकृतियों को बाँधता है । वेद वेदक पद में ज्ञानावरणादि कर्मों को वेदता हुआ जीव अन्य कर्मों की कितनी प्रकृतियों को वेदता है, इसका निरूपण किया गया है । आहार पद में कौन से जीव किस प्रकार का आहार लेते हैं, इसका तथा आहरक अनाहारक आदि बातों का विस्तार से कथन किया गया है। उपयोग पद में साकार और अनाकार उपयोग का वर्णन है । पश्यता-दर्शनता पद में भी उपयोग का विस्तार से वर्णन है तथा उपयोग और पश्यता का पारस्परिक भेद तथा पश्चयता के नौ भेदों का भी कथन किया गया है । संज्ञापद में संज्ञा का विस्तार से वर्णन किया गया है । संयम पद में संयत, असंयत और संयतासंयत आदि जीवों का वर्णन किया गया है। अवधि पद में अवधिज्ञान के हीयमान और वर्धमान आदि भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रविचारणा पद में देवों के प्रवीचार (कामभोगों) का विचार है । वेदना पद में वेदना संबंधी विचार है कि किन जीवों को कौन-कौनसी वेदना होती है। छत्तीसवां पद समुद्घात पद है। इसमें समुद्घात के काल, परिमाण, चौबीस दंडकों की अपेक्षा से अतीत, अनागंत और वर्तमान संबंधी समुद्घात, केवली समुद्घात करने का कारण, योगों का व्यापार आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। (८६)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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