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________________ वीतरागश्रुत, संलेखनाश्रुत, विहारकल्प, चरण कल्पविधि, आतुर प्रत्याख्यान, महांप्रत्याख्यान इत्यादि। नंदीसूत्र के पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है कि नंदीसूत्रकार के समय तक अनेक ग्रंथ थे, जिन्हें प्रमाणभूत मानकर आगम के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था। इनमें से कतिपय सूत्र आज उपलब्ध है और कुछ अनुपलब्ध हैं । वर्तमान में श्वेतांबर मूर्ति पूजक परंपरा में अंग बाह्य आगमों की संख्या चौतीस और स्थानकवासी परंपरा में इक्कीस प्रमाणभूत मानी गयी है । इन्हें भी सरलता से समझने के लिए पाँच विभागों में विभक्त किया गया है । वे पाँच विभाग निम्नलिखित हैं . उपांग, मूल, छेद, चूलिका और प्रकीर्णक । इन विभागों में गर्भित आगमों के नाम और उनका परिचय यथास्थान आगे दिया जा रहा है। इस परिचय में यह ध्यान रखना है कि पहले उंन सूत्रों का परिचय दिया जायेगा, जो समस्त श्वेतांबर परंपरा को मान्य है और उसके बाद उनका परिचय देंगे, जिनको श्वेतांबर मूर्तिपूजक परंपरा तो मानती है, लेकिन स्थानकवासी परंपरा नहीं मानती। * दिगंबर परंपरामान्य अंगबाह्य दिगंबर परंपरा में भी श्रुत के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो मूल भेद हैं। अंग आगमों के नाम और संख्या श्वेतांबर और दिंगबर परंपरा में एक जैसी समान है, लेकिन दिगंबर परंपरा में अंगबाह्य आगमों की कुल संख्या चौदह मानी गयी है। उनके नाम व संख्या इस प्रकार है १. सामायिक- इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से समता भाव रूप सामायिक का वर्णन किया जाता है । तीनों संध्याओं (प्रात:, मध्याह्न और सांय) में या पक्ष और मास के संधि दिनों में अथवा अपने इच्छित समय में बाह्य और अन्तरंग पदार्थों में कषाय का निरोध करने को सामायिक करते हैं। इसके चार भेद हैं- द्रव्य सामायिक, क्षेत्र सामायिक,काल सामायिक और भाव सामायिक । सचित्त और अचित्त द्रव्यों में रांग-द्वेष के निरोध करने का द्रव्य सामायिक कहते हैं। ग्राम, नगर देश आदि में राग-द्वेष का निरोध करना क्षेत्र सामायिक है। छह ऋतुओं में साम्य भाव रखने को या राग-द्वेष न करने को काल सामायिक कहते हैं । समस्त कषायों का निरोध करके तथा मिथ्यातत्व को दूर करके छह द्रव्य विषयक निर्बाध अस्खलित ज्ञान को भाव सामायिक कहते हैं । इसमें इन सबका वर्णन है । १. जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका के आधार से और षखंड पुस्तक १ पृष्ठ९६-९८, पृ. .. ९, पृ. १८७-१९१ का पा.भा. १ पृ. ९७-१२१ (७७)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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