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________________ २. चतुर्विंशतिस्तव- उस उस काल संबंधी चौबीस तीर्थंकरों की वंदना करने की विधि, उनके नाम, आकार, ऊंचाई, पाँच महाकल्याणक, चौतीस अतिशयों का स्वरूप और तीर्थंकरों की कृत्रिम, अकृत्रिम प्रतिमाओं और चैत्यालयों का वर्णन इसमें ... ३. वंदना- एक जिनेन्द्र संबंधी और उन-उन जिनेन्द्र देव के अवलंबन से जिनालय संबंधी वन्दना का सांगोपांग वर्णन इसमें है। ४. प्रतिक्रमण- प्रमाद से लगे हुए दोषों का निराकरण जिसके द्वारा किया जाता है, उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। इसके सात भेद हैं- दिन संबंधी, रात्रि संबंधी, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक और औत्तमार्थिक। प्रतिक्रमण अंगबाह्य में इन सातों प्रकार के प्रतिक्रमणों का वर्णन किया गया है। ... . ५. वैनयिक- यह ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तपविनय और उपचार विनय का वर्णन करता है। ६. कृतिकर्म- यह अरिहंत, सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु की पूजाविधि । का वर्णन करता है। ___७. दशवैकालिक- इसमें मुनियों की आचार विधि और गोचर विधि का वर्णन है। ८. उत्तराध्ययन-चार प्रकार के उपसर्ग और बाईस परीषहों के सहने के विधान का और उनके सहन करने के फल का तथा अनेक प्रकार के उत्तरों का वर्णन इसमें . ९. कल्प व्यवहार-साधुओं के योग्य आचरण का और अयोग्य आचरण के होने पर प्रायश्चित विधि का वर्णन इसमें है। . १०. कल्प्याकल्प्य- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर मुनियों के लिए यह योग्य है और यह अयोग्य है, इत्यादि का वर्णन इसमें है। ११. महाकल्प्य- दीक्षा ग्रहण, शिक्षा, आत्मसंस्कार, संलेखना और उत्तम स्थान रूप आराधना को प्राप्त हुए साधुओं के करने योग्य आचरण का वर्णन इसमें है। १२. पुंडरीक- भवनवासी. व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी और वैमानिक संबंधी इन्द्र सामानिक देव आदि में उत्पत्ति के कारणभूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास, सम्यक्त्व और अकामनिर्जरा का तथा उनके उपपात स्थान और भवनों के स्वरूप का इसमें वर्णन है। (७८)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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