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________________ गृहस्थाश्रम में रहते हुए इन्होंने किस प्रकार धर्म, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों की साधना की थी, यह भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है । इसी प्रकार गृहस्थाश्रम में रहा हुआ व्यक्ति भी आत्मविकास करता हुआ किस प्रकार मोक्ष का अधिकारी हो सकता है, यह भी उनके जीवन से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है । इन कथाओं में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं - १. आनन्द श्रावक को अवधिज्ञान होने का उल्लेख और २. दुष्टभार्या के कारण होने वाली गृहस्थ जीवन की विडम्बनापूर्ण स्थिति । श्रावक को अवधिज्ञान किस हद तक हो सकता है ? इस विषय में आनन्द श्रावक और गौतम गणधर के बीच चर्चा है। आनन्द का कहना है कि मेरा कहना ठीक है, जबकि गौतम गणधर उसके कथन को मिथ्या बताते हैं । आनन्द इस बात को, स्वीकार नहीं करते हैं। अंत में गौतम गणधर भगवान महावीर के पास जा कर अवधिज्ञान विषयक शंका का समाधान प्राप्त करते हैं और भगवान के आदेशानुसार आनन्द के पास जा कर अपनी भूल कबूल कर क्षमा याचना करते हैं। इससे गौतम गणधर की ऋजुता एवं विनयशीलता तथा आनन्द श्रावक की निर्भीकता व सत्यता प्रकट होती है। इसका फलितार्थ यह संकेत देता है कि चाहे उच्चतम पदस्थ व्यक्ति कितना ही बुद्धिशाली एवं प्रभावक हो, फिर भी उसे अपने प्रमाद के परिमार्जन के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए 1 ऐसा करने से उसके गौरव की वृद्धि होती है । दोषों को छिपाने से लोगों में अविश्वास बढ़ता है तथा साधारण से साधारण व्यक्ति को भी निर्भीक होकर सत्य का पक्ष लेना चाहिए। किसी के प्रभाव में आकर सच बात कहने 'में झिझकना नहीं चाहिए । 1 गार्हस्थ्य जीवन सुखद, सुन्दर और सद्विवेक समन्वित हो सकता है, जब पति-पत्नी समान आचार विचार वाले हों । पति धार्मिक वृत्ति वाला हो और पत्नी कर्कशा, दुष्ट और क्रूर हो तो, सब कुछ तहस-नहस हो जाता है । महाशतक जैसे श्रावक क्रूर पत्ली रेवती इसका उदाहरण है, जो माँसाहारी तो है ही, पर इतनी दुष्ट भी है कि अपनी सौतों की हत्या करके भी शान्त नहीं होती और स्वयं महाशतक को भी परेशान करने से नहीं चूकती । की उपसंहार के रूप में यही निर्देश करना शेष रह जाता है कि अन्य सूत्रों में तो प्रायः साध्वाचार का निरूपण है, लेकिन इस सूत्र में गृहस्थ धर्म के बारे में प्रकाश डाला है कि श्रावक श्राविकाओं का मूल आचार एवं अनुष्ठान क्या है । उस आचार के अनुरूप जीवन जीने वाले ही वास्तव में श्रावक है । शेष तो मात्र नामधारी श्रावक हैं । (६७)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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