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________________ तीर्थक थे और बाद में प्रतिबोध मिलने पर भगवान महावीर के शिष्य हो गए और आत्म साधना करके अंत में उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उन्हीं की तरह स्कन्दक, तमिल, पूरण, पुद्गल आदि तापसों का भी वर्णन आता हैं । इसमें दानामा और प्राणामा रूप दो तापसी दीक्षाओं का भी उल्लेख है । दानामा अर्थात् भिक्षा लाकर दान करने वाली प्रव्रज्या और प्राणामा अर्थात् प्राणिमात्र को प्रणाम करते रहने की प्रवज्या । इस वर्णन से तत्कालीन साधक वर्ग एवं उसकी साधना के रूप में कुछ पता लगता है । 1 पंद्रहवें शतक में मखली पुत्र गोशालक का विस्तृत वर्णन है । भगवान महावीर के साथ उसका संपर्क उनकी छद्मस्थ अवस्था में होता है । अंत में वह नियतिवादी होकर आजीवक परंपरा की स्थापना करता है । उसका शिष्य परिवार तथा उपासक वर्ग भी विशाल था, लेकिन वर्तमान में उसका कुछ भी साहित्य उपलब्ध नहीं है । सोलहवें शतकं के पहले उद्देशक में वायुकाय और अग्निकाय के जीवों की चर्चा है । वहाँ बताया गया है कि ऐरण पर हथोड़ा मारते ही वायुकाय उत्पन्न होता है । अन्य पदार्थ का संस्पर्श होने पर ही वायुकाय के जीव मरते हैं, संस्पर्श के बिना नहीं । सिगड़ी, चूल्हे में अग्निकाय के जीव जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट तीन दिन-रात तक रह सकते हैं । वहाँ वायुकायिक जीव भी उत्पन्न होते हैं और रहते हैं, क्योंकि वायु के ऑक्सीजन-प्राणवायु के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती । द्वितीय उद्देशक में जरा व शोक के विषय में प्रश्नोत्तर है । वहाँ बताया है कि जिन जीवों के स्थूल मन नहीं होता, उनके शोक तो नहीं होता, किन्तु जरा (वृद्धावस्था) होती है । स्थूल मनवालों को दोनों होते हैं । भवनवासी, वैमानिक के भी दोनों होते । उनके शरीर में भी वार्धक्य आता है । छठे उद्देशक में स्वप्न संबंधी चर्चा है । स्वप्न कितने प्रकार के हो सकते हैं ? कौन स्वप्न देख सकता है ? याने किस स्थिति में ये स्वप्न दिखाई देते हैं ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान किया गया है । साधारण स्वप्न बयालीस और महास्वप्न तीस होते हैं । यह भी बताया है कि स्त्री व पुरुष अमुक स्वप्न देखे, तो अमुक फल मिलता है । इस चर्चा से मालूम होता हैं कि जैन अंग शास्त्रों में स्वप्न विद्या पर भी विचार किया गया है । अठारहवें शतक के छठें उद्देशक में पौद्गलिक पदार्थों के स्कंधादि है, उनकी तथा परमाणु, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक, चतुष्प्रदेशिक, पंचप्रदेशिक आदि पुद्गल स्कंधों के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की चर्चा है । अर्थात् इस उद्देशक में पुद्गल द्रव्य के बारे में विस्तृत विचार किया गया है । इसी प्रकार अन्य शतकों में विभिन्न दार्शनिक आध्यात्मिक और भौतिक (६३)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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