________________
हवा भरकर उसे ऊपर से बांध दिया जाए। फिर उसे बीच से बाँधकर ऊपर से खोल दिया जाए। इससे ऊपर के भाग की हवा निकल जाएगी। फिर उस खाली भाग में पानी भरकर ऊपर से मुँह बाँध दिया जाए व बीच की गाँठ खोल दी जाए। इससे ऊपर के भाग में भरा हुआ पानी उस नीचे भरी हुई हवा के आधार पर टिका होगा । इसी प्रकार लोक पवन के आधार पर रहा हुआ है । अथवा जैसे कोई मनुष्य अपनी कमर पर हवा भरी हुई मशक बाँधकर पानी के ऊपर तैरता रहता है । वह डूबता नहीं है । उसी प्रकार वायु के आधार पर समस्त लोक टिका हुआ है और स्पुतनिक युग में वायु के सहारे आकाश में मनुष्य तैराने के वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोग हुए हैं और हो रहे हैं जो भगवान के कथन को सत्य सिद्ध करते हैं ।
भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा के श्रमणों- पार्वापत्यों द्वारा पूछे गए कुछ प्रश्न भी इस सूत्र में संकलित हैं । उनसे यह ज्ञात होता है कि वे साधु एक दूसरे की मान्यताओं एवं भगवान महावीर के सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व से अपरिचित थे, परंतु जैसे ही परिचय हुआ, एक दूसरे की मान्यताओं को समझा और अपने प्रश्नों से भगवान के सर्वज्ञत्व का निर्णय कर लिया, तो उनकी श्रमण परंपरा में मिल गए ।
शतक सातवें और आठवें में वनस्पति संबंधी विवेचन है। सातवें शतक के तीसरे उद्देशक में वनस्पतिकाय के जीव के भोजन संबंधी चर्चा है कि ये जीव श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक इन चार महीनों में अधिक से अधिक आहार लेते हैं । शरद, हेमन्त, वसंत और ग्रीष्म ऋतु में उत्तरोत्तर क्रमशः उनका आहार कम होता जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह कथन विचारणीय है। वर्षा ऋतु के चार महीनों में जैन श्रमणों का एक स्थान पर आवास, चातुर्मास या वर्षावास करने का यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण माना जाता है।
- द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक में क्या वायु काय के जीव वायुकाय को ही श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में बताया गया है कि हाँ, वायुकाय के जीव भी श्वासोच्छवास के रूप में वायुकाय को ही ग्रहण करते हैं । यहाँ वृत्तिकार ने यह स्पष्ट किया है कि जो वायुकाय ग्रहण किया जाता है, वह चेतन नहीं, किन्तु जड़ पुद्गल रूप होता है । उसकी स्वतंत्र वर्गणाएँ होती हैं, जिन्हें श्वासोच्छवास वर्गणा कहते हैं ।
नौवें शतक के तीसरे उद्देशक में भगवान महावीर के शिष्य जमाली का पूरा . चरित्र वर्णित हैं । वह बाद में भगवान महावीर से अलग होकर अपने आपको जिन केवल कहने लगा था ।
ग्यारहवें शतक के नौवे उद्देशक में शिव राजर्षि का वर्णन है, जो पूर्व में अन्य
(६२)