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________________ २. वि + आख्या + प्रज्ञप्ति = विविधतया कथन का प्रज्ञापन । जिस शास्त्र में विविध रूप से कथन का प्रतिपादन किया गया है, उसका नाम हैं, व्याख्या प्रज्ञप्ति । ३. व्याख्या + प्रज्ञा + आप्ति अथवा आत्ति = व्याख्या की कुशलता से आप्त से प्राप्त होने वाला अथवा ग्रहण किया जाने वाला श्रुत विशेष व्याख्या प्रज्ञप्ति कहलाता है। ४. व्याख्या प्रज्ञ + आप्ति अथवा आत्ति = व्याख्या करने में प्रज्ञ अर्थात् कुशल भगवान से गणधर को जिस ग्रंथ द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो अथवा कुछ ग्रहण करने का अवसर मिले, उसका नाम व्याख्या प्रज्ञप्ति अथवा व्याख्या प्रज्ञात्ति है ।। वर्तमान में उपलब्ध व्याख्या प्रज्ञप्ति का ग्रंथगत प्रमाण पंद्रह हजार श्लोक है। अन्य ग्रंथों की अपेक्षा अधिक विशाल एवं अधिक पूज्य होने के कारण लोक प्रचलित इसका दूसरा नाम 'भगवती' भी प्रसिद्ध है। उपलब्ध व्याख्या प्रज्ञप्ति की मुख्य विशेषता यह है कि इसके अतिरिक्त अन्य अंग अथवा अंगबाह्य किसी भी सूत्र के प्रारंभ में मंगलाचरण का कोई विशेष पाठ . उपलब्ध नहीं होता, लेकिन इसके प्रारंभ में 'नमो अरिहंताणं' आदि नवकार मंत्र के पाँच पद दे कर मंगलाचरण किया गया है । इसके बाद ब्राह्मी लिपि को भी नमस्कार किया गया है । तदनन्तर प्रस्तुत अंग के प्रथम शतक के उद्देशकों में वर्णित विषयों का निर्देश करने वाली एक संग्रह गाथा दी गई है । उस गाथा के बाद 'नमो सुअस्स' रूप एक मंगल और आता है । इसके बाद ग्रंथ प्रारंभ होता है । ग्रंथ कई प्रकरणों में है, जिनका नाम 'सय-शत्' दिया गया है । यह ‘सय-शत्' शतक का ही रूप है । शत् अथवा शतक का अर्थ सौं होता है, परंतु ग्रंथ में सौ का कोई संबंध दृष्टिगोचर नहीं होता। यह शब्द इस ग्रंथ में रूढ़ है, ऐसा मालूम होता है । प्रत्येक प्रकरण के अंत में 'सयं समत्तं' ऐसा पाठ मिलता है । शत् में उद्देशक रूप उपविभाग मिलता है। कुछ शतों में दस दस और कुछ में इससे भी अधिक उद्देशक हैं। जैसे कि अड़तालीसवें शत में एक सौ छियानवें उद्देशक हैं । कुछ शतों में उद्देशकों के स्थान पर वर्ग हैं और कुछ में शत् नाम से उपविभाग भी हैं। उनकी संख्या एक सौ चौबीस तक है । केवल पंद्रहवें शतक में कोई उपविभाग नहीं है । प्रथम शत् के प्रारंभ में उपोद्घात है, जिसमें राजगृह नगर, गुणशील चैत्य, राजा श्रेणिक और रानी चेलना का उल्लेख है । इसके बाद भगवान महावीर का गुणानुवाद पूर्वक विस्तृत रूप में वर्णन करके, गणधर गौतम, उनके गुण, शरीर आदि का विस्तृत परिचय है । इसके बाद प्रश्नोत्तर शैली से प्रथम शतक प्रारंभ होता है । यही प्रणाली आगे के शतकों में ग्रंथ समाप्ति तक है । (६०)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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