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________________ है, जो भगवान महावीर के निर्वाण के बाद घटित हुई है। उदाहरण के लिए जमाली, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठमाहिल इन सात निह्नवों का उल्लेख है। इनमें से प्रथम दो के अतिरिक्त शेष सब निह्नवों की उत्पत्ति भगवान महावीर के निर्वाण के बाद तीसरी से लेकर छठी शताब्दी तक के समय में हुई है। अतएव यह मानना उपयुक्त है कि इस सूत्र की अंतिम योजना वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में होने वाले किसी गीतार्थ पुरुष ने अपने समय तक की पूर्व परंपरा से चली आने वाली घटनाओं के साथ मिलाकर की है। इसी प्रकार समवायांग के सौवें सूत्र में गणधर इंद्रभूति और सुधर्मा के निर्वाण का उल्लेख है। इन दोनों का निर्वाण भगवान महावीर के बाद हआ है। ऐसी स्थिति में आगमों को ग्रंथबद्ध करने वाले आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमा श्रमण ने इन दोनों अंगों को अंतिम रूप दिया ह्ये, तो वैसा मानना योग्य ही है। इन दोनों आगमों का संकलन कोश शैली में हुआ है । संभवतः स्मृति अथवा धारणा की सरलता को दृष्टि में रखकर या विषयों की खोज को सुगम बनाने के लिए ये संकलित किए गए हैं। इन दोनों जैसी कोश शैली बौद्ध और वैदिक परंपरा के ग्रंथों में भी उपलब्ध होती है। बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय, पुग्गल पत्ति, महाव्युत्पत्ति एवं धर्म संग्रह में विचारणाओं का संग्रह इसी शैली में किया गया है तथा वैदिक परंपरा के ग्रंथ महाभारत के वन पर्व (अध्याय १३४) में भी इस शैली में विचार संग्रहित किए गए हैं। इस प्रकार की संग्रह प्रधान कोश शैली होने पर भी कई स्थानों पर इसका अपवाद भी दिखाई देता है। इसका कारण संभवतः यह हो सकता है कि इन स्थानों पर या तो शैली खण्डित हो गई है या फिर विभाग करने में सावधानी नहीं रखी गई है। कारण कुछ भी रहा हो, लेकिन ये दोनों कोश आगम ऐसे अनेक तथ्य उपस्थित करते हैं, जो आज के विज्ञान, समाज आदि के लिए उपयोगी जानकारी देते हैं । वर्तमान जैन परंपरा में प्रचलित बोल संग्रह थोकड़ा आदि के आधार ये ही दोनों आगम हैं। * ५. व्याख्या प्रज्ञप्ति 'व्याख्या प्रज्ञप्ति' यह पाँचवें अंग का नाम है । इसका प्राकृत नाम तो वियाह पण्णत्ति है, लेकिन प्रतिलिपिकारों की असावधानी से इसके अनेक पाठ उपलब्ध होते हैं। उनका विचार पूर्व में किया जा चुका है। संस्कृत नाम में सर्वत्र व्याख्या प्रज्ञप्ति शब्द का प्रयोग ही हआ है। वृत्तिकार ने व्याख्या प्रज्ञप्ति शब्द की अनेक प्रकार से व्याख्या की है। १. वि + आ + ख्या + प्र + ज्ञप्ति = विविध प्रकार से समग्रतया कथन का प्रकृष्ट निरूपण अर्थात् जिस ग्रंथ में कथन का विविध ढंग से पूर्णतया प्रकृष्ट निरूपण किया गया हो, वह ग्रंथ व्याख्या प्रज्ञप्ति कहलाता है।
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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