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________________ में कुछ पद्य तो बिल्कुल स्पष्ट है। इनके अतिरिक्त और भी अध्ययनों में पद्य हैं. लेकिन मुद्रित प्रतियों में गद्य-पद्य के रूप में छपे हैं । चूर्णिकार ने तो कहीं-कहीं इनका निर्देश किया भी हैं, परंतु वृत्ति में यह नहीं दिखता है । आचारांग प्रथम श्रुत स्कंध संपादक डॉ. शूबिंग ने अपने संस्मरण में इन पद्यों को स्पष्ट करते हुए जर्मन भाषा में पर्याप्त प्रकाश डाला है। द्वितीय श्रुतस्कंध की प्रथम दो चूलिकाएँ गद्य में है। तीसरी चूलिका में कहीं-कहीं पद्य हैं । विशेषतया भगवान महावीर के संपत्तिदान के संबंध में उपलब्ध वर्णन छह आर्या छन्दों और दीक्षा के लिए ज्ञातखण्ड वन की ओर प्रस्थान करने का वर्णन ग्यारह आर्या छन्दों में हैं। सामायिक चारित्र को अंगीकार करने एवं पाँच महाव्रतों की भावनाओं का वर्णन भी आर्या छन्द में है । विमुक्ति नामक चतुर्थ चूलिका पद्य में ही है। प्रथम स्तुस्कंध के अन्य वाक्य सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन एवं दश वैकालिक में अक्षरशः उपलब्ध हैं तथा कुछ वचन.धर्मान्तरों के ग्रंथों विशेषतया सुवालोपनिषद, ईशाद्यष्टोत्तर शतोपनिषद, केन, कठ, बृहदारण्यक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ब्रह्मविद्या, तेजोबिन्दु आदि उपनिषदों और गीता के वचनों से मिलते-जुलते हैं। * २. सूत्रकृतांग समवायांग, नंदी और दिगंबर परंपरा. के तत्वार्थ राजवार्तिक, धवला, अंगपण्णति आदि ग्रंथों में प्राप्त सूत्रकृतांग के परिचय का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है । यहाँ जिस रूप में ग्रंथ उपलब्ध है, उसका परिचय देते हैं। उपलब्ध सूत्रकृत्तांग के दो श्रुतस्कंध है । पहले श्रुतस्कंध में सोलह और दूसरे में सात अध्ययन है। कुल मिलाकर तेईस अध्ययन है। उनके नाम दिगंबर परंपरा की प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी नामक पुस्तक की प्रभाचंद्रीय वृत्ति में इस प्रकार है-१. समय, २. वैतालीय, ३. उपसर्ग, ४. स्त्री परिणाम, ५. नरक, ६. वीर स्तुति, ७. कुशील परिभाषा, ८. वीर्य, ९: धर्स, १०. अग्र, ११. मार्ग, १२. समवसरण, १३. त्रिकाल ग्रंथ हिद, १४. आत्मा, १५. तदित्थ गाथा, १६. पुण्डरीक, १७. क्रियास्थान, १८. आहारक परिणाम, १९. प्रत्याख्यान, २०. अनगार गुणकीर्ति, २१. श्रुत, २२. अर्थ, २३. नालंदा । इन नामों में श्वेताम्बर परंपरा के टीका ग्रंथ आवश्यक वृत्ति पृष्ठ ६५१ व ६५८ में उपलब्ध नामों में थोड़ा सा अन्तर है, जो नगण्य है। समवायांग आदि में निर्दिष्ट विषयों में से उपलब्ध सूत्र कृतांग में स्वमत परमत की चर्चा प्रथम श्रुतस्कंध में संक्षेप में और द्वितीय श्रुतस्कंध में स्पष्ट रूप से है । तीन . (५१)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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