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________________ ध्यान करने का स्थान) की प्राप्ति के संबंध में प्रकाश डाला गया है। तीसरे में दीर्घशंका और लघुशंका के योग्य स्थान का विवेचन है। चौथे और पाँचवें अध्ययन में शब्द व रूप विषयक निरूपण है कि मुनि को मधुर शब्द सुनकर व सुन्दर रूप देखकर मोहित नहीं होना चाहिए । छठे में परक्रिया - मुनि के शरीर में दूसरे के द्वारा की जाने वाली कर्मबंधक क्रिया के होने पर मुनि को कैसे बर्तना चाहिए और सातवें में अन्योन्य क्रिया - मुनियों को परस्पर में होने वाली कर्मबंधक क्रियाओं में कैसे रहना चाहिए, इस विषय का विवेचन है । तीसरी चूलिका में भगवान महावीर के चरित्र का वर्णन है । इसमें उनके जन्म, माता-पिता, स्वजन आदि का उल्लेख है तथा पाँच महाव्रतों एवं उनकी पाँच-पाँच भावनाओं का रूप भी बतलाया है । इस प्रकार भावना के वर्णन के कारण इस चूलिका का नाम भावना सार्थक है । इसमें दो उद्देशक हैं । 1 चतुर्थ चूलिका में केवल ग्यारह गाथाएँ हैं । उनमें विभिन्न उपमाओं द्वारा वीतराग के स्वरूप का वर्णन किया गया है। ये सब गाथाएँ हित शिक्षा देने वाली हैं । अंतिम गाथा में ‘विमुच्चइ' क्रिया पद हैं। इसके आधार से इस चूलिका का नाम करण किया गया है। 1 इस प्रकार पूर्वोक्त संकेतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपलब्ध आचारांग में श्रमणचर्या संबंधी उन सभी आचार विचारों का विवेचन किया गया है, जो समवायांग आदि आगमों एवं दिगंबर परंपरा के ग्रंथों में आचारांग के वर्ण्य विषय माने गए हैं । लेकिन प्रस्तुत ग्रंथ के लिए इस संभावना को ध्यान में रखना चाहिए कि बहुत सा अंश विच्छिन्न हो जाने से पूर्णतया स्पष्ट नहीं होने से कुछ विचारों का संकेत मात्र है और कुछ का विशेष उल्लेख । परंतु वर्ण्य विषय का प्रतिपादन अवश्य किया गया है इसकी पुष्टि संक्षेप रुचि वाले मूल से एवं विस्तार रुचि वाले टीका ग्रंथों से कर सकते 1 हैं । आचारांग के दोनों श्रुतस्कंधों में से पहला श्रुतस्कंध प्राचीन से प्राचीन है और उसका पहला अध्ययन 'शस्त्र परिज्ञा' अन्य अध्ययनों की अपेक्षा भी अधिक प्राचीन है। इसमें समस्त आचारांग का सार आ जाता है । अतः यह उचित होगा कि इसे हृदय माने और शेष सभी अध्ययन एवं चूलिकाएँ उसके आशय को विस्तृत रूप में स्पष्ट करती है, ऐसा मानें । I आचारांग की शैली गद्य पद्यमय है । प्रथम श्रुतस्कंध के अध्ययनों में से आठवें अध्ययन विमोक्ष का आठवां उद्देशक एवं नौवां उपधान श्रुत अध्ययन पद्यात्मक है तथा दूसरे अध्ययन लोकविजय, तीसरे अध्ययन शीतोष्णीय और छठे अध्ययन धूत (५०)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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