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________________ सौ तिरसठ पाखण्डी मतों की चर्चा के लिए तो एक पूरा ही अध्ययन है तथा अन्यत्र भी यथा प्रसंग भूतवादी, स्कन्धवादी, एकात्मवादी, नियतवादी आदि की चर्चा आती है। जगत की रचना के विविध वादों की चर्चा एवं मोक्ष मार्ग का भी निरूपण है । यत्र तत्र ज्ञान, आस्रव, पुण्य, पाप आदि विषयों और कल्प्य अकल्प्य विषयक श्रमण संबंधी आचार व्यवहार की चर्चा भी उपलब्ध है। धर्म एवं क्रिया स्थान नामक अध्ययन तो अलग से है । जयधवलोक्त स्त्री परिणाम से लेकर पुंस्कामिता तक के सब विषय उपसर्ग परिज्ञा और स्त्री परिज्ञा नामक अध्ययनों में मिलते हैं। इस प्रकार दोनों परंपराओं निर्दिष्ट विषय उपलब्ध सूत्र कृतांग में अधिकांशतया विद्यमान है। इन अध्ययनों में किसी विषय का प्रधानता से और किसी का गौणता से निरूपण अवश्य किया गया है तथा तेईस अध्ययन दोनों को मान्य है। अब इन अध्ययनों के वर्ण्य विषयों को कुछ विशेषता से बतलाते हैं प्रथम अध्ययन का नाम समय है। समय अर्थात् सिद्धांत । इस अध्ययन में स्वसमय के साथ निरसन की दृष्टि से परसमयों का भी निरूपण किया गया है, लेकिन इसके लिए किसी विशेष प्रकार की तर्कशैली का प्रयोग नहीं जैसा है। इसके चार उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में बंध और बंध कारण का संकेत करने के बाद भौतिकवाद, ब्रह्मवाद, एकात्मवाद, दूसरे प्रकार का भौतिकवाद, अक्रियावाद, वैशेषिक और बौद्ध दर्शनों का खण्डन है। दूसरे उद्देशक में भाग्यवाद, भौतिकवाद, क्रियावाद व बौद्ध दर्शनों का वर्णन है । तीसरे उद्देशक में मुनि के ग्राह्य-अग्राह्य आहार, पौराणिक मत, गोशालक मत व वैनयिक मत का उल्लेख है । चौथे में उपसंहार करते हुए बहुत से प्रचलित मतों का विचार किया गया है एवं निग्रंथ को संयम धर्म का आचरण करने का उपदेश दिया है। द्वितीय अध्ययन वैतालीय के तीन उद्देशक हैं। उनमें राग, द्वेष, हिंसा आदि रूप संस्कारों के विनाश के उपाय बताए हैं । प्रथम उद्देशक में बाईस, द्वितीय में बत्तीस और तृतीय में बाईस गाथाएँ हैं । इस प्रकार वेतालीय अध्ययन में छिहत्तर गाथाएँ हैं। तृतीय अध्ययन का नाम उपसर्ग परिज्ञा हैं। साधक को अपनी साधना में अनेक प्रकार के उपसर्गों का सामना करना पड़ता है। साधना काल में आने वाले विघ्नों, बाधाओं, विपत्तियों को उपसर्ग कहते हैं । यद्यपि उपसर्गों की संख्या गिनाई नहीं जा सकती, तो भी उपसर्ग अनुकूल और प्रतिकूल दो प्रकार के होते हैं, यह कहा जा सकता है । सच्चा साधक इन उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके वीतराग, स्थितप्रज्ञ बने, यही इस अध्ययन का सार है । इसके चार उद्देशकों में से प्रथम में सतरह, द्वितीय में बाईस, तृतीय में इक्कीस और चतुर्थ में बाईस गाथाएँ हैं । सामान्य से इस अध्ययन
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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