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________________ +१. आचारांग आचारांग पहला आगम है। प्राकृत भाषा में आचार के पर्यायवाची नाम हैं-आचार, आचाल, आगाल, आगर, आसास, आयरिस, अंग, आइण्ण, आजाति एवं आमोक्ष । इनमें 'आयार' शब्द जनविश्रुत है, जिसका संस्कृत रूप आचार है। उपलब्ध आचारांग के दो श्रुत स्कंध है । प्रथम श्रुत स्कंध के नौ अध्ययन है-१. शस्त्र परिज्ञा, २. लोक विजय, ३. शीतोष्णीय, ४. सम्यकत्व, ५. याजन्त, १ ६. धूत, ७. विमोह या विमोक्ष, ८. उपधान श्रुत, ९. महापरिज्ञा । नंदीसूत्र की हारिभद्रीय तथा मलयगिरि कृत टीका व आचारांग नियुक्ति में इन नामों के क्रम में परिवर्तन करके उन्हें आगे-पीछे रखा है, लेकिन अध्ययनों की संख्या नौ है । प्रथम श्रुतस्कंध का अपरनाम ब्रह्मचर्य भी है और नौ अध्ययन होने से 'नव ब्रह्मचर्य' भी कहते हैं। प्रथम अध्ययन शस्त्र परिज्ञा में सात उद्देशक-प्रकरण हैं । प्रथम उद्देशक में जीव के अस्तित्व तथा आगे के छह उद्देशकों में पृथ्वीकाय आदि छह जीव निकायों के आरंभ समारंभ की चर्चा है । इन प्रकरणों में 'शस्त्र' शब्द का अनेक स्थानों में प्रयोग किया गया है, लेकिन प्रचलित लाठी, तलवार, बंदूक आदि के लिए नहीं। इन लौकिक शस्त्रों की अपेक्षा सर्वथा भिन्न प्रकार के शस्त्र के लिए किया है। क्योंकि आचारांग श्रमण आचार से संबंधित आगम ग्रंथ है । श्रमणाचार का साध्य वीतरागता एवं आत्मशुद्ध है । अतः ऐसी स्थिति में बंदूक आदि शस्त्रों का विवेचन कैसे संभव हो सकता है । ऐसे शस्त्र स्पष्ट रूप से हिंसक है । अतः आचारांग की दृष्टि में क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय, राग, द्वेष, ईर्ष्या, मात्सर्य आदि कषाय भाव ही भयंकर शस्त्र है। इन कषायों के द्वारा ही बंदूक आदि शस्त्रास्त्र उत्पन्न हुए हैं और होते हैं । इस दृष्टि से कषाय जन्य समस्त प्रवृत्तियाँ शस्त्र रूप है । इस शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में कषाय रूप अथवा कषायजन्य प्रवृत्ति रूप शस्त्रों का ही ज्ञान कराया गया है । अतएव शब्दार्थ की दृष्टि से इस अध्ययन का 'शस्त्र परिज्ञा' नाम सार्थक है। . द्वितीय अध्ययन लोक विजय में छह उद्देशक हैं। इस अध्ययन में अनेक स्थानों पर लोक शब्द का प्रयोग तो मिलता है, किन्तु 'विजय' शब्द का प्रयोग दिखाई नहीं देता। फिर भी समग्र अध्ययन में लोक विजय का ही उपदेश होने से इसका नाम लोकविजय युक्ति संगत है । यहाँ विजय का अर्थ लोकप्रसिद्ध शस्त्रास्त्र द्वारा विजय (१) दूसरा नाम लोकसार भी है। इस नामकरण के कारण का स्पष्टीकरण आगे देखिए। (२) समवायांग, समवाय९ (४५)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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