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________________ प्राप्ति नहीं, किन्तु लोक अर्थात् संसार के मूल कारण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को जीतना है, इन पर विजय प्राप्त करना है। यही इस अध्ययन का सार है। इस अध्ययन का पूर्ण उद्देश्य वैराग्य वृद्धि, संयम में दृढ़ता, जातिगत अभिमान को दूर करना, भोगों की आसक्ति से दूर रहना, भोजनादि के निमित्त से होने वाले आरंभ समारंभ का त्याग करवाना और छुड़वाना आदि हैं । तृतीय अध्ययन ‘शीतोष्णीय' में चार उद्देशक हैं । यहाँ शीत और उष्ण शब्द लोक प्रचलित सर्दी, गर्मी, ठण्ड, गरम अर्थ में नहीं, किन्तु शीत अर्थात् शीतलता या सुख एवं उष्ण अर्थात् परिताप या दुःख के लिए प्रयुक्त है। इस अध्ययन में इन दोनों के त्याग का उपदेश है । प्रथम उद्देशक में असंयमी को सुप्त अर्थात् सोते हुए व्यक्ति की कोटि में गिनकर उसका वर्णन किया गया है। दूसरे उद्देशक में बताया गया है कि इस प्रकार के सुप्त व्यक्ति महान दुःख का अनुभव करते हैं । तृतीय उद्देशक में बताया है कि श्रमण के लिए केवल दुःख सहन करना अर्थात् देहदमन करना ही पर्याप्त नहीं, किन्तु उसे चित्त शुद्धि की वृद्धि करते रहना चाहिए और उसके लिए मनोनिग्रह जरूरी है । चतुर्थ उद्देशक में कषाय एवं पाप कर्मों के त्याग तथा संयमोत्कर्ष का निरूपण है । इस अध्ययन के प्रारंभ में 'सीओसिणच्चाई' (शीतोष्ण त्यागी) इस शब्द का प्रयोग किया गया है, अतः इसका शीतोष्णीय नाम सार्थक है। , ___ चौथे अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है और इसके भी चार उद्देशक हैं। अनेक स्थानों में सम्मत दसिणो' 'सम्म एवं ति' आदि वाक्यों में सम्मत सम्यक्त्व शब्द का निर्देश है, अतः इसका सम्यक्त्व यह नाम सार्थक है । इसके प्रथम उद्देशक में अहिंसा शर्म की स्थापना व सम्यक्त्ववाद का निरूपण है । द्वितीय उद्देशक में हिंसा की स्थापना करने वाले अन्य यूथिकों से प्रश्न किया है कि उन्हें मन की अनुकूलता सुख रूप प्रतीत होती है या मन की प्रतिकूलता? इस प्रकार इसमें भी अहिंसा का ही प्रतिपादन है । तीसरे उद्देशक में निर्दोषतम अर्थात् अक्रोध, अलोभ, क्षमा, संतोष आदि गुणों की वृद्धि करने वाले तप का विवेचन है । चौथे उद्देशक में सम्यक्त्व, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं सम्यक तप प्राप्ति के लिए यत्न करने का उपदेश है। इस प्रकार यह अध्ययन सम्यक्त्व प्राप्ति की प्रेरणा देने वाला है। ___ पाँचवां अध्ययन ‘यावन्ति' है। नियुक्तिकार के मत से इसका दूसरा नाम लोकसार भी है। अध्ययन के प्रारंभ, मध्य और अंत में 'आवन्ति' शब्द का प्रयोग होने से इसे आवंति (यावन्ति) नाम दे सकते हैं, लेकिन इस अध्ययन में जो वर्णन है, वह समग्र लोक का सार रूप होने से लोकसार यह नाम भी उपयुक्त है । अध्ययन के प्रारंभ में 'लोक' शब्द प्रयुक्त किया गया है एवं अन्यत्र भी लोक शब्द का प्रयोग देखने (४६)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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