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________________ अध्याय ६ उपलब्ध अंग आगमों का परिचय अंग आगमों की संकलना के बारे में पहले यह बताया जा चुका है कि तीर्थंकर परमात्मा अपना जो आशय प्रकट करते हैं, गणधर भगवन्त उस आशय को अपनी-अपनी शैली से शब्दबद्ध करते हैं। इसका फलितार्थ यह हआ कि एक गणधर की जो शैली व शब्द रचना हो, वही दूसरे की हो भी और नहीं भी हो। इसलिए नंदीस्त्र व समवायांग में बताया गया है कि प्रत्येक अंग सूत्र की वाचना एक या एक से अधिक होती है। ____ भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे। उनमें से कुछ तो भगवान की उपस्थिति में ही मुक्ति प्राप्त कर चुके थे। सिर्फ सुधर्मास्वामी उनमें दीर्घायु थे । अतः भगवान के समस्त प्रवचन का उत्तराधिकार उन्हें मिला था। उन्होंने उसे सुरक्षित रखा और अपनी शैली व शब्द रचना में आगे की शिष्य-प्रशिष्य परंपरा को सौंपा। इस परंपरा ने कंठस्थ करके एक लंबे काल तक उसे सुरक्षित रखा। सारांश यह है कि आज के अंग आगम आर्य सुधर्मा की शैली-शब्द रचना के रूप में है। वर्तमान में दृष्टिवाद के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंग आगम उपलब्ध है । दृष्टिवाद की अनुपलब्धि का कारण यह है कि आचार्य भद्रबाहु को यह याद था, लेकिन उनके बाद उसके ज्ञाता क्रमशः काल कवलित होते गए । इस कारण उनके बाद अधिक लंबे काल तक वह विद्यमान नहीं रहा। शेष ग्यारह अंग उपलब्ध है, लेकिन उनमें से भी आज बहुत सा अंश विलुप्त हो चुका है। विलुप्त क्यों हो गया? इसके कारणों का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। वर्तमान में अंगों का जो लिपिबद्ध रूप है, वह देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के प्रयत्नों का परिणाम है । उन्होंने आगमों को लिपिबद्ध अवश्य किया-कराया लेकिन उस समय अनेक पाठान्तर, दो वाचनाएँ तथा उनके पूर्व भी मथुरा, वल्लभी वाचना के भी शास्त्र मौजूद थे। उनमें से जिनका समन्वय हो सका, उनका समन्वय करके और शेष को पाठान्तर के साथ पुस्तकबद्ध कर दिया । इसमें से भी बाद में कुछ न कुछ अंश और नष्ट न हुआ हो, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता । यह बात सर्वविदित है कि देश की राजनैतिक परिस्थितियों के कारण बहत-सा साहित्य नष्ट हुआ है । अतः यहाँ आगमों के उसी रूप का परिचय दिया जा रहा है, जिस रूप में आज वे उपलब्ध १. कलिंग सम्राट खारवेल ने भी अपने समय में जिन प्रवचनों के समुद्धार का प्रयत्न किया था, ऐसा खण्डगिरि उदयगिरि के शिलालेख से ज्ञात होता है तथा हिमवंत थेरावली से भी यह जानकारी मिलती है, लेकिन इस संबंध में अन्य किसी जैन ग्रंथ में उल्लेख नहीं मिलता। (४४)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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