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संख्या दी गई है। __ उत्तरवर्ती काल में विभिन्न आचार्यों द्वारा नियुक्ति, चूर्णि, वृत्ति, दीपिका, टीका, अवचूरी, पर्याय स्तबक आदि के रूप मे इन आगमों की व्याख्याएँ लिखी गईं, जिनसे अंगों के विषय में विशेष जानकारी प्राप्त होती है और इनका परिमाण हजारों श्लोक प्रमाण है । व्याख्याकारों में आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय), हरिभद्र सूरि, शीलांक, अभयदेव, मंलयगिरि, मलधारी हेमचंद्र आदि के नाम प्रमुख हैं।
अंग आगमों में सिर्फ तात्विक, दार्शनिक विचारों की ही मीमांसा नहीं की गई है, अपितु मानवीय जीवन को स्पर्श करने वाले प्रत्येक प्रश्न का समाधान किया गया है। धर्म विचारणा की तरह समाज, राज्य, व्यक्ति के विकास, व्यवस्था आदि का भी प्रसंगानुसार विवेचन किया गया है। उसका संकेत यथास्थान आगे किया जाएगा। * दिगंबर परंपरा में अंग आगम
श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों परंपराओं की यह मान्यता एक जैसी है कि आगमों के अध्ययन अध्यापन की परंपरा अखण्ड रूप में कायम नहीं रही। दुष्काल आदि के कारण आगम अक्षरशः सुरक्षित नहीं रखे जा सके, किन्तु इसके साथ दिगंबर परंपरा का यह मन्तव्य है कि वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद आगमों का सर्वथा विच्छेद-लोप हो गया, जबकि श्वेताम्बर परंपरा का मत है कि आगमों के पाठ खण्डित अवश्य हुए हैं, पाठ भेद भी हुए हैं, लेकिन अवशिष्ट अंश जैसा का तैसा आज भी सुरक्षित है। ____ अंग शगमों के सर्वथा विलुप्त हो जाने के दृष्टिकोण से दिगंबर परंपरा में अंग विषय विशेष सामग्री तो प्राप्त नहीं होती, लेकिन जो सामग्री उपलब्ध है, उसमें अंगों के नाम, उनके विषय और पदपरिमाण का उल्लेख है। अंगों के नाम और पदपरिमाण का तो पूर्व में उल्लेख हो चुका है, अंगों के विषय का विवरण इस प्रकार
है
आचरांग-आठ शुद्धि, पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि के रूप में श्रमणचर्या का वर्णन इस अंग में है।
सूत्रकृतांग- ज्ञान, विनय, कल्प्य, अकल्प्य, छेदोपस्थापनादि व्यवहार धर्म की क्रियाओं का इसमें निरूपण है।
स्थानांग- एक-एक, दो-दो आदि के रूप में अर्थों का वर्णन इस अंग में है। समवायांग- इसमें समान रूप से सब पदार्थों के समवाय का विचार है।
व्याख्या प्रज्ञप्ति- जीव है या नहीं? आदि साठ हजार प्रश्नों के उत्तर इसमें दिए गए हैं।
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