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________________ ज्ञातृ धर्म कथा- इसमें अनेक आख्यान और उपाख्यानों का संकलन है। उपासकाध्ययन- इसमें श्रावक धर्म का विशेष विवेचन है। अन्तकृद्दशा-प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले उन दस-दस केवलियों का वर्णन इसमें है, जिन्होंने भयंकर उपसर्ग सहन कर मुक्ति प्राप्त की। अनुत्तरोपपातिक दशा- प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले उन दस-दस मुनियोंका वर्णन इसमें है, जिन्होंने दारुण उपसर्ग सहन कर पाँच अनुत्तर विमानों में जन्म लिया। प्रश्न व्याकरण- युक्ति और नयों के द्वारा अनेक आक्षेप और विक्षेप रूप प्रश्नों के उत्तरों का इसमें संकलन है। विपाक सूत्र- इसमें पुण्य और पाप के विपाक का विचार किया गया है। दृष्टिवाद-इसमें तीन सौ तिरसठ एकान्त मतों का खण्डन है । अकलंक कृत्त तत्वार्थ राजवार्तिक में अंतकद्दशा और अनुत्तरोपपातिक दशा नामक दो अंगों के अध्ययनों-प्रकरणों के नामों का उल्लेख किया गया है । यद्यपि इन नामों के अनुसार वर्तमान अंतकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक दशा में वे अध्ययन उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन प्रतीत होता है कि राजवार्तिककार के सामने ये दोनों अंग अन्य वाचना वाले मौजूद रहे हों। स्थानांग २ में उक्त दोनों अंगों के अध्ययनों के जो नाम बताए हैं, उनसे राजवार्तिकगत नाम कितने ही मिलते हैं। अतएव यही कहा जा सकता है कि राजवार्तिक और स्थानांग के कर्ताओं के सामने एक ही वाचना के सूत्र रहे होंगे अथवा राजवार्तिक के कर्ता अकलंक ने स्थानांग में गृहीत अन्य वाचना को प्रमाणभूत मानकर ये नाम दिए हों । राजवार्तिक के समान ही धवला, जय धवला, अंगपण्णत्ति आदि में भी वैसे ही नाम उपलब्ध हैं। ____ दिगंबर परंपरा के प्रतिक्रमण सूत्र के पाठों में किन्हीं अंगों के अध्ययन की संख्या का उल्लेख है, जो श्वेताम्बर परंपरा में प्रसिद्ध संख्या से विशेष भिन्न नहीं है। उसकी प्रभाचंद्रीय वृत्ति में इन अध्ययनों के नाम व विस्तार से परिचय दिया गया है, जो श्वेताम्बर परंपरा से उपलब्ध नामों से हू ब हू मिलते हैं । अपराजित सूरि कृत दशवैकालिक वृत्ति का उल्लेख उनकी अपनी मूलाराधना की वृत्तियों में आया है। यह वृत्ति अभी अनुपलब्ध है। संभव है, इन अपराजित सूरि या दिगंबर परंपरा के अन्य आचार्यों ने अंग आदि आगमों पर वृत्तियाँ आदि लिखी हों, जो अधुना उपलब्ध न हो। १. तत्त्वार्थ राजवार्त्तिक १/२० . २. स्थानांग १०/७५५
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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