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________________ इसके पूर्वगत विभाग में उत्पाद आदि चौदह पूर्व समाविष्ट है, जिनके नाम पहले बताये जा चुके हैं । यह विभाग काफी बड़ा रहा होगा, किन्तु विलुप्त हो जाने से अनुमानित कल्पनाएँ तो कल्पनाएँ ही हैं। इस विभाग की विशालता को बताने के लिए इन पूर्वो को लिखने में कितनी स्याही की आवश्यकता है, यह बताने के लिए कल्पसूत्र के एक वृत्तिकार लिखते हैं कि प्रथम पूर्व को लिखने में एक हाथी, दूसरे पूर्व को लिखने में दो हाथी, तीसरे पूर्व के लिए चार हाथी और चौथे पूर्व के लिए आठ हाथी के वजन जितनी स्याही की आवश्यकता होती है । इस प्रकार उत्तरोत्तर दुगुनी करते-करते अन्तिम पूर्व को लिखने के लिए आठ हजार एक सौ बानवे हाथियों के वजन के बराबर स्याही चाहिए। भले ही इसको कल्पना मान कर हम इसकी उपेक्षा कर दें, लेकिन इतना निश्चित हैं कि यह पूर्वगत विभाग एक अनूठा और बहुत ही विशाल होगा। इस प्रकार आचार आदि द्वादशांगों के उपर्युक्त नामार्थों में किये गये संकेतों से यह ज्ञात होता है कि आचारांग में जैन आचार का वर्णन किया गया है । सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती), और प्रश्न व्याकरण अंगों में तात्त्विक विचारों और दार्शनिक सिद्धान्तों का संकलन है तथा ज्ञातृ धर्मकथा, उपासक दशा, अन्तकृत दशा और अनुत्तरोपपातिक दशा अंग कथात्मक है। उनमें जिनमार्ग के अनुयायिओं की जीवनी, शुभ-अशुभ कर्मों का विपाक और दृष्टान्त कथाओं द्वारा मानव को धार्मिक तथा नैतिक विचार अपनाने का वर्णन किया गया है और दृष्टिवाद . अंग का मुख्य संबंध दार्शनिक चर्चाओं से रहा होगा। * अंगों की भाषा शैली . इन आचारांग आदि सभी अंगों की भाषा साधारणतया अर्धमागधी है। वैय्याकरणी इसे आर्ष प्राकृत कहते हैं। पहले यह संकेत किया जा चुका है कि जैन परंपरा में शब्द का अर्थात् भाषा का विशेष महत्व नहीं है । जो कुछ महत्व है, वह अर्थ या भाव का है । भाषा तो केवल विचारों की माध्यम है । इसलिए माध्यम के अलावा भाषा का कोई मूल्य नहीं है । परंपरा से चला आने वाला साहित्य भाषा की दृष्टि से परिवर्तित होता आया है। इस कारण इसमें किसी एक भाषा का स्वरूप स्थिर रहा हुआ है, यह नहीं कहा जा सकता। शैली की दृष्टि से आचारांग और सूत्रकृतांग में गद्य और पद्य दोनों प्राकर की शैली है और तीसरे से लेकर ग्यारहवें अंग तक गद्यात्मक शैली प्रमुख है । इसका आशय यह नहीं है कि उनमें पद्य है ही नहीं। पद्य है, किन्तु प्रधानता गद्यात्मक शैली की है । इसके अलावा तत्कालीन साहित्य रचना की विधाओं का अनुसरण करते हुए (३१)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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