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________________ प्रसंगानुकूल गुरु-शिष्य संवाद, वार्तालाप, प्रश्नोत्तर आदि पद्धतियों को स्वीकार किया गया है। यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे साहित्य में पद्य शैली अति प्राचीन है तथा गद्यशैली उसकी अपेक्षा अर्वाचीन है। गंद्य को याद रखना कठिन होने से गद्यात्मक ग्रंथों में यत्र तत्र संग्रह गाथाएँ दे दी जाती हैं, जिनसे विषय को याद रखने में सहायता मिलती है । इसी प्रसंग में यह बताना भी आवश्यक है कि आचारांग सूत्र में पद्य संख्या अल्प नहीं है, लेकिन अनभिज्ञता के कारण उसके गद्य-पद्य विभाग का पृथक्करण नहीं किया जा सका। आचारांग के पद्य त्रिष्ठम, जगती आदि वैदिक पद्यों से मिलते-जुलते हैं। विषय के प्रस्तुतीकरण की विधा अपनी समकालीन परंपरा का निर्वाह करती है । जैसे की आचारांग के प्रारंभ में ही वाक्य आता है- 'सुयं में आउसं... उन भगवान ने इस प्रकार कहा है, ऐसा मैंने सुना है, इस वाक्य द्वारा सूत्रकार ने इस बात का निर्देश दिया है कि यहाँ जो कुछ भी कहा जा रहा है, वह गुरु परंपरा के अनुसार है, स्वकल्पित नहीं है । इसी प्रकार के वाक्य वैदिक और बौद्ध परंपरा के वेद त्रिपिटको में भी प्रयुक्त हुए हैं। * अंगों का क्रम ग्यारह अंगों के क्रम में सर्व प्रथम आचारांग है । वर्ण्य विषय की दृष्टि से आचारांग को सर्व प्रथम स्थान देना उपयुक्त ही है, क्योंकि संघ व्यवस्था में सबसे पहले आचार की व्यवस्था होना अनिवार्य है। दूसरा हेतु यह है कि जहाँ-जहाँ अंगों के नाम आये हैं, वहाँ मूल से अथवा वृत्ति में सबसे पहले आचारांग का ही नाम आया है। तीसरा यह है कि इसके नाम के उल्लेख में कभी किसी ने विचार नहीं किया है। लेकिन मुख्य कारण यही मानना चाहिए कि इसका वर्ण्य विषय अतिव्यापक है और उसका महत्व प्रदर्शित करने के लिए आचारांग को प्रथम स्थान दिया है। आचारांग के बाद जो सूत्र कृतांग आदि के नामों की क्रम योजना की है, वह श्वेतांबर और दिगंबर दोनों परंपराओं में एक जैसे है और दोनों ने आचारांग को सब से पहले स्थान दिया है। * अंगों का पद परिमाण अंगों के बाह्य रूप का परिचय प्राप्त करने में नाम, उनका अर्थ, भाषा-शैली को जानने के अतिरिक्त ग्रंथगत श्लोक या पद परिमाण को जानना जरूरी है । इसको जाने बिना यह नहीं समझा जा सकता कि ग्रंथ पूर्ण है या अधूरा है । वह किसी कारण . (३२)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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