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इस प्रकार श्वेतांबर और दिंगबर दोनों परंपराओं में जो नाम बताये हैं, उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। * आचारादि अंगों के नामों का अर्थ ...
भाषाओं की उच्चारण शैली की विभिन्नता के कारण नामों के रूपों में आगत विभिन्नताओं का विचार करने के अनन्तर अब उनके नामों के अर्थ पर विचार करते
सामान्यतया आचारांग आदि अंगों का नाम करण प्राय: उन उनमें आगत वर्ण्य विषय के अनुरूप हैं। फिर भी कुछ नाम ऐसे हैं, जो संज्ञात्मक हैं और जिनका उन अंगों में आगत वर्णन से मेल नहीं खाता । इसीलिए बोध के लिए उनके नामों का अर्थ स्पष्ट करते हैं।
१. आचार- यह द्वादश अंगों में पहला अंग है। इसका नाम इसके वर्ण्य विषय के अनुरूप है । इसके प्रथम विभाग में आन्तर और बाह्य दोनों प्रकार के श्रमण आचार की चर्चा की गयी है।
२. सूत्रकृत्- सूत्रकृत् का अर्थ है, सूत्रों द्वारा अर्थात् प्राचीन सूत्रों के आधार से अथवा सूत्रों-वाक्यों से बनाया गया सूत्र । इसके नाम से तत्काल ग्रंथ के वर्ण्य विषय का तो नहीं, किन्तु रचना पद्धति का पता लगता है।
३. स्थान- आचारांग की तरह स्थान और समवाय अंगों के नाम स्फुटार्थक नहीं है, परन्तु जैन परंपरा में ठाणा शब्द संख्या के लिए प्रचलित हैं। जैसे - जैन · साधुओं की संख्या के लिए ठाणा शब्द का प्रयोग किया जाता है । 'यहाँ कितने ठाणा हैं।' इस प्रकार के प्रश्न का अर्थ सब जैन समझते हैं। अत: यहाँ स्थानांग- ठाणांग शब्द संख्या अर्थ में प्रयुक्त समझना चाहिए।
४. समवाय- 'समवाय' नाम की भी यही स्थिति है । इस नाम से यह प्रकट होता है कि इसमें बड़ी संख्या का समवाय है।
इस प्रकार स्थान नामक तीसरा अंग जैन तत्त्व संख्या का एवं समवाय नामक चतुर्थ अंग जैन तत्त्व के समवाय का अर्थात् बड़ी संख्यावाले तत्त्व का निरूपण करने वाला अंग ग्रंथ है।
५. व्याख्या प्रज्ञप्ति- इस पंचम अंग के अर्थ का विचार ऊपर किया जा चुका है और इसका नाम ग्रंथगत विषय के अनुरूप है।
६. ज्ञात धर्म कथा- इसका नाम कथा सूचक है, जो इसके नाम से स्पष्ट हो जाता है । इस कथा ग्रंथ के विषय में भी ऊपर कहा जा चुका है ।
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