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+ नामनिर्देश .
आचारांग आदि बारह अंगप्रविष्ट आगमों के नाम पूर्व में बताये जा चुके हैं। सभी जैन परंपराओं में इनके प्राकृत भाषीय नामों में प्राय: समानता है, एक रूपता है और जो थोड़ा बहुत भेद दिखाई भी देता है, वह केवल भाषायी विभक्ति के प्रत्यय अथवा एकवचन-बहुवचन का है । संस्कृत ग्रंथों में इनके नामों में विभिन्नताएं देखने में अवश्य आती हैं। जैसे कि आचार्य उमास्वति के तत्वार्थ सूत्र के भाष्य में केवल अंगों के नामों का उल्लेख है । उसमें पाँचवें अंग का नाम भगवती' न देते हुए व्याख्या प्रज्ञप्ति' दिया गया है और बारहवें अंग के नाम का भी उल्लेख है । वहाँ नाम इस प्रकार दिये गये हैं
१. आचार, २. सूत्रकृतम्, ३. स्थानम्, ४. समवाय:, ५. व्याख्या प्रज्ञप्ति, ६. ज्ञातृधर्मकथा, ७. उपांसकाध्ययन दशा: ८. अन्तकृद्दशाः, ९. अनुत्तरोपपातिक दशा:, १०. प्रश्न व्याकरणम् ११. विपाक, १२. दृष्टिपात:।१ . परन्तु उक्त नामों के बारें में दिगंबर परंपराभिमत पूज्यपाद कृत 'सर्वार्थसिद्धि' नाम तत्त्वार्थवृत्ति में उपासकदशा के बंदले 'उपासकाध्ययन', 'अन्तकृद्दशा' के बजाय 'अन्तकृदशम्' नाम हैं। इन नामों के लिए अकलंक कृत 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' में फिर थोड़ा परिवर्तन किया गया है। उसमें 'अन्तकृद्दशम्' और 'अनुत्तरोपपातिक दशम्' के स्थान पर क्रमश: 'अन्तकृद्दशा' एवं 'अनुत्तरोपपातिक दशा' शब्द प्रयुक्त किये गये हैं । श्रुतसागर कृत वृत्ति में ज्ञातृधर्म कथा' के स्थान पर 'ज्ञातृकथा' का प्रयोग है।
___ अंग-पण्णत्ति नामक ग्रंथ में दृष्टिवाद के संबंध में कहा गया है कि इसमें ३६३ दृष्टियों का निराकरण किया गया है। साथ ही क्रियावाद, अक्रियावाद एवं विनयवाद के अनुयायियों के मुख्य-मुख्य नाम भी दिये गये हैं। ये सब नाम प्राकृत में हैं । तत्वार्थ राजवर्तिक में भी इसी प्रकार के नाम बताये गये हैं। वहाँ ये सब नाम संस्कृत में है। इन दोनों स्थानों के नामों में कुछ कुछ अन्तर आ गया है । सर्वार्थ सिद्धि में दृष्टिवाद के भेदरूप पाँच नाम बताये हैं- परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। इनमें से पूर्वगत के भेद रूप चौदह नाम इस प्रकार हैं - १. उत्पाद पूर्व, २. अग्रायणीय, ३. वीर्यान्प्रवाद, ४, अस्तिनास्ति प्रवाद,५. ज्ञान प्रवाद, ६. सत्यप्रवाद,७. आत्मप्रवाद, ८. कर्म प्रवाद, ९. प्रत्यख्यान, १०. विद्यानुप्रवाद ११. कल्याण, १२. प्राणावाय, १३. क्रिया विशाल, १४. लोक बिन्दुसार ।
१. तत्त्वार्थ भाष्य १२० २. सर्वार्थसिद्धि १ ।२० ३. तत्त्वार्थ राजवार्तिक १ ।२०
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