________________
गणिपिटक शब्द आचरांगादि बारह अंगों के समुच्चय के लिए तो प्रयुक्त हुआ ही है, किन्तु वह प्रत्येक अंग के लिए भी प्रयुक्त होता होगा, ऐसा समवायांग के एक उल्लेख से प्रतीत होता है।
यह बात तो हई 'गणिपिटक' शब्द के प्रयोग के लिए। अब अंग शब्द के बारे में विचार करते हैं। वैदिक साहित्य में अंग शब्द प्रधान वेदों से भिन्न संहिता आदि ग्रंथों के लिए प्रयुक्त हुआ है और वहाँ अंग का तात्पर्य है- वेदों के अध्ययन में सहायक विविध विद्याओं के ग्रंथ, जिन्हें आज की भाषा में पूरक ग्रंथ या किसी पुस्तक के परिशिष्ट कह सकते हैं। अर्थात वैदिक साहित्य में अंग का तात्पर्य मौलिक नहीं, किन्त सहायभूत गौण ग्रंथों से है, जब कि जैनों में अंग' शब्द का यह अर्थ नहीं है। क्योंकि आचार आदि अंग किसी के सहायक या गौण ग्रंथ नहीं, अपितु आचार आदि बारह ग्रंथों से बनने वाले वर्ग की इकाई होने से अंग कहे गये हैं। इसी से जैसे पुरुष के शरीर में बारह अंग होते हैं, वैसे ही श्रुतपुरुष की कल्पना करके इन बारह अंगों को उस श्रुत पुरुष के अंगरूप माना गया है । पुरुष के बारह अंग कौन-कौन से हैं ? इसका निर्देशं करते हुए नन्दीवृत्ति पृष्ठ ५०३ में कहा गया है
पाय दुगं जंघा उसु, गाय दुगद्धं तु दोय बाहू य । गीवा सिरं च पुरिसो, बारस अंगो सुय विसिट्ठो॥
इस गाथा का स्पष्टीकरण करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है- पुष के बारह अंग होते हैं। जैसे दो पैर, दो जंघा, दो घुटने, दो गात्रार्ध, दो बाहु, ग्रीवा और मस्तक । ऐसे ही श्रुत रूप पुरुष के भी क्रम से आचार आदि बारह अंग समझना चाहिये । ये बारह अंगरूप से श्रुतपुरुष में व्यवस्थित हैं।
___ इनके अतिरिक्त जो अंगबाह्य के रूप में व्यवस्थित हैं वे अनंग प्रविष्ट हैं । इस प्रकार वृत्तिकार के अभिप्राय के अनुसार श्रुतपुरुष के आचारादि बारह अंगों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है___ आचार और सूत्रकृत श्रुतपुरुष के दो पैर हैं, स्थान और समवाय दो जंघाएँ हैं, व्याख्या प्रज्ञप्ति व ज्ञाता धर्म कथा दो घुटने है, उपासक और अन्तकृत् दो गात्रार्ध हैं, अनुत्तरोपपातिक व प्रश्न व्याकरण दो बाहुएँ हैं तथा विपाक सूत्र ग्रीवा और दृष्टिवाद मस्तक है।
१. तिण्हं गणिपिडगाणं आयार चूलिया वज्जाणं सत्तावनं अज्झयणा पन्नत्ता । तं जहा - आयारे सूयगडे ठाणे ।
- समवायांग ५७वा समवाय २. शरीर का ऊपरी एवं नीचे का भाग अथवा अगला (पेट आदि) और पिछला (पीठ आदि) भाग
गात्रार्ध कहलाता है।
(२६)