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________________ प्राकृत भाषासाहित्य में मनोवैज्ञानिक निरूपण से अध्ययन किया गया है। मन का स्वरूप, स्थान और कार्य के बारे में अनेकविध मंतव्य है, लेकिन मानव अस्तित्व और उत्कर्ष के संदर्भ में मन का महत्त्व अपरिहार्य है । जिस तरह मनोविज्ञान के अध्ययन में मन ही केन्द्रवर्ती विषय है। इस तरह प्राकृत साहित्य के यह अति मूल्यवान कोशरूप आगमपरंपरामें मन को मध्यवर्ती बिन्दु रख कर मनुष्य की आत्मिक उन्नति बारे में सोचा गया है । इस दृष्टि से मनोविज्ञान के साथे उसका अतूट संबंध है। मन के प्रकार : - स्वरूप - विश्लेषण के संदर्भ में जैन विचार में मन के मुख्य दो प्रकार बताये गये हैं :: द्रव्य-मन और भाव-मन । मन के भौतिक-रुप को द्रव्य मन और चेतन रुप को भावमन कहा गया है । द्रव्यमन और भावमन अन्योन्य एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं । जैन दर्शनने मन और शरीर का अन्योन्य प्रभावक संबंध भी स्वीकृत किया है । मन नैतिक जीवन की आधारभूमि है । इस दृष्टि से आचार्य हेमचंद्र ने मन की चार अवस्थाएँ मानी हैं। विक्षिप्त मन, यातायात मन, श्लिष्ट. मन और सुलीन मन । _ विक्षप्त मन चंचल, बहिर्मुखी और अनेक संकल्प - विकल्प से युक्त होता है। मन की शान्ति यहाँ संभवित नहीं है । यातायात मन योगाभ्यास की प्रारंभ की अवस्था सूचित करता है । कभी बाह्य विषयों के प्रति आकर्षित हो कर संकल्प .- विकल्प करता है, तो कभी भीतर में स्थिर होता है । यातायात चित्त कभी अंतमुखीं और कभी बहिमुखी होता है । श्लिष्ट मन स्थिरता की अवस्था को सूचित करता हैं। विचार या ध्यान का आलंबन प्रशस्त विषय होता है और शान्ति की अनुभूति भी होती है। वासनाओं अथवा ईच्छाओं का सर्वथा लोप होना यह मन की सुलीन अवस्था का द्योतक है । यह मन की निरुद्धावस्था है और सब संकल्प विकल्प को लोप हो जाता है। .... इस तरह ये मन की चार क्रमिक अवस्थाएँ है, जिनमें चित्त अपनी स्वाभाविक, स्थिर, शांत, आनंदमय अवस्था क्रमशः प्राप्त करता है । - जैनदर्शन में राग और द्वेष ये दो कर्म-बीज और कर्म-मय जीवन के प्रेरकसूत्र माने गये हैं । इन्द्रियों का अनुकूल या सुखद विषयों से सम्पर्क होता है, तब उन विषयों में आसक्ति तथा तृष्णा का भाव जागृत होता है जो रागप्रेरित है। और जब इन्द्रियों का प्रतिकूल या दुःखद विषयों से संयोग होता है तो धृणा या विद्वेष का भाव उत्पन्न होता है । राग-द्वेष की ये वृत्तियाँ ही व्यक्ति के नैतिक
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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