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जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छा परस्स विमा, एत्तियेगं जिणसासणं ॥ (बृहत्कल्पभाष्य
४५-४)
तुम अपने लिये जैसा चाहते हो, वैसा तुम औरों के लिये भी चाहो । अपने लिये जो नहीं चाहते, उसे औरों के लिये भी मत चाहो ।
आचारांग में बताया है -
सव्वेसिं जीवितं पयं । ( आचारांग
और भी कहा गया है -
बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
तथागत ने भी यही कहा है
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सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीवउं ण मरिज्जिउं ।
तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वाज्जयंति णं ॥ ( दशवैकालिक - ६)
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सभी प्राणी जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता । अंतः निर्ग्रन्थ घोर प्राणीवध को वर्ज्य मानते I
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१-२-३-४)
सब्बे तस्सन्ति दण्डस्स, सब्बसं जीवितं पियं
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये ॥ ( धम्मपद - १०.२ )
दण्ड से हिंसा से सब त्रस्त होते हैं। सबको अपना जीवन प्रिय लगता
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है । औरों को अपने ही समान समझकर उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए ।
बुद्ध और महावीर के समय में ब्राह्मण शब्द ज्ञातिवाचक बन गया था, उसकी यथार्थ व्याख्या महावीर और बुद्ध ने बहुत समान रूप से दी | मानव जन्म से नहि, कर्म से श्रेष्ठ होता है । जन्म से नहीं कर्म से ब्राह्मण बनता है । से श्रमण होता है और अहिंसादि व्रत और पंचशीलों के पालन से ही ब्राह्मण बनता है । जैसे महावीर स्वामीने कहा है
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समभाव
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तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थापरे ।
जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूमि माहणं ॥
बुद्धने धम्मपद में यही बात कही हैं
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जो त्रस्त और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर उसकी मन, वचन और काय से हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।
(उत्तरा. अ. २५, गाथा- २३)