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________________ ७४ जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छा परस्स विमा, एत्तियेगं जिणसासणं ॥ (बृहत्कल्पभाष्य ४५-४) तुम अपने लिये जैसा चाहते हो, वैसा तुम औरों के लिये भी चाहो । अपने लिये जो नहीं चाहते, उसे औरों के लिये भी मत चाहो । आचारांग में बताया है - सव्वेसिं जीवितं पयं । ( आचारांग और भी कहा गया है - बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम तथागत ने भी यही कहा है - सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीवउं ण मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वाज्जयंति णं ॥ ( दशवैकालिक - ६) - सभी प्राणी जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता । अंतः निर्ग्रन्थ घोर प्राणीवध को वर्ज्य मानते I - १-२-३-४) सब्बे तस्सन्ति दण्डस्स, सब्बसं जीवितं पियं अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये ॥ ( धम्मपद - १०.२ ) दण्ड से हिंसा से सब त्रस्त होते हैं। सबको अपना जीवन प्रिय लगता - है । औरों को अपने ही समान समझकर उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए । बुद्ध और महावीर के समय में ब्राह्मण शब्द ज्ञातिवाचक बन गया था, उसकी यथार्थ व्याख्या महावीर और बुद्ध ने बहुत समान रूप से दी | मानव जन्म से नहि, कर्म से श्रेष्ठ होता है । जन्म से नहीं कर्म से ब्राह्मण बनता है । से श्रमण होता है और अहिंसादि व्रत और पंचशीलों के पालन से ही ब्राह्मण बनता है । जैसे महावीर स्वामीने कहा है 1 समभाव I तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थापरे । जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूमि माहणं ॥ बुद्धने धम्मपद में यही बात कही हैं - जो त्रस्त और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर उसकी मन, वचन और काय से हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । (उत्तरा. अ. २५, गाथा- २३)
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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