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________________ ७३ जैन और बौद्ध धर्म में अहिंसा का निरुपणः तुलनात्मक दृष्टि से सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन विहिंसति । अत्तनो सुखमेसानो, पेच्च सा न लभते सुखम् ॥ __(धम्मपद - १०/२) अपनी तपश्चर्या के संदर्भ में वे कहते हैं कि कोई छोटे जीव-जंतु की हत्या न हो जाये - इसके लिये मैं सावधान रहता था । सभी प्राणी सुख चाहते हैं । जो अपने सुख की इच्छा से दूसरे प्राणियों की हिंसा करता है, उसे न यहाँ सुख मिलता है, न परलोक में ।। अप्रत्यक्ष हिंसा को भी वर्ण्य मानते हैं - जैसे कहते हैं - 'मा वोच फरुसं किंचि' किसी को कठोर वचन मत कहों - जिससे वह व्यथित हो । मन-वचन और काया से किसी की घात न करने का स्पष्ट उपदेश उन्होंने दिया है। ... बौद्ध धर्म में जैन धर्म की तरह व्यवहारपक्ष में अहिंसा का स्पष्ट रूप से निर्देश नहीं किया गया है तब भी सुखोपभोग और आजीविका की दृष्टि से सर्वतोभावेन हिंसा को वर्ण्य माना है। वृक्ष में भी प्राण होने की बात बुद्धने कही है। आजीविका की दृष्टि से भी प्राणियों के नख, दत, चर्म - आदि से बनाई गई वस्तुओं का व्यापार यहाँ निषिद्ध है । निर्वाण प्राप्ति के लिए राग-द्वेष-मोहरहित मनःस्थिति और अहिंसा का मन-वचन-काया से परिपालन अपरिहार्य माना गया है। दोनों धर्मों के साहित्य में ऐसी अनेक गाथायें मिलती हैं, जिनमें अहिंसा का समान रूप से निरूपण किया गया है। जैसे : संधि लोगस्स जाणित्ता आयओ बहिया पास । तम्हा ण हंता ण विघातए ॥ (आचारांग सूत्र - १,३,३,१) '' : यह लोक - यह जीवन - धर्मानुष्ठान की अपूर्व सन्धि-वेला है। इसे जान कर साधक बाह्यजगत को अन्य आत्माओं को - प्राणीमात्र को - आत्मसदृश्य - अपने समान समझे । किसी का हनन न करे । पीडोत्पादन न करें । इसी तरह भगवान बुद्ध कहते हैं - यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं । अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये ॥ (सुत्तनिपात - ३, ३७, २७) जैसा मैं हूं, वैसे ही ये अन्य प्राणी हैं। जैसे वे अन्य प्राणी हैं वैसा ही मैं हूँ। यों सोचता हुआ अपने समान मानकर न उनकी हत्या करे, न करवाए ।
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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