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________________ ६६. बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम की सुरक्षाके लिए उपकारक है। . लकड़ी आदि काटकर कोयले आदि बनाने से वनस्पतिका भी नाश होता है और उसे जलने से वायु भी प्रदूषित होता है । पशुओं को किराये पर देना या बेचना भी अधर्म्य माना गया है । यहा अहिंसा के साथ अनुकंपा और सहिष्णुताका भाव भी निहित है। पशुओं के दांत, बाल, चर्म, हड्डी, नख, रोम; सींग और किसी भी अवयवका काटना और इससे चीजवस्तुओंका निर्माण करके व्यापार करना निषिद्ध आज हम हाथीदांत और अन्य प्राणीयों के चर्म, हड्डी आदिसे सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण के लिये अनियंत्रित ढंग से प्राणियोंकी हत्या करते हैं। . वन-जंगल आदि केवल वृक्षका समूह वनस्पतिका उद्भवस्थान ही नहीं है, लेकिन पृथ्वी पर के अनेक जीवों के जन्म, जीवन और मृत्यु के परस्पर अवलंबनरूप एकम है । वास्तविक दृष्टि से पृथ्वी के सर्व जीवों के वृक्ष-वनस्पति सहित परस्पर अवलंबनरूप, एक आयोजनबद्ध व्यवस्था मनुष्यने अपने स्वार्थवश कुदरतकी यह परस्परावलंबन की प्रक्रिया में विक्षेप डाला है.। निष्णात लोगों का मत है कि प्रत्येक सजीव का पृथ्वी के संचालनमें अपना योगदान है। लेकिन आज पृथ्वी पर का जैविक वैविध्य कम होता जा रहा है । वन और वनराजि - जीवजंतु, पशुपक्षी आदिका बड़ा आश्रयस्थान है । लेकिन जंगलं के जंगल ही जब काटे जा रहे हैं, तब उसमें रहनेवाले पशु-पक्षियोंकी सलामती कैसे रहेगी? सौंदर्य प्रसाधनों के उत्पादन के लिए हाथी, वाघ, मगर, सर्प आदि की अनेक संख्यामें निर्मम हत्या की जाती है। कीटकनाशक दवाओं से भी असंख्य जीव-जंतुओं का नाश होता है। वनसृष्टि के विनाश से उपजाउ जमीन भी बंजर बन जाती है, रणप्रदेशों का विस्तार बढ़ता है। जमीन को खोदने से उसमें रहनेवाले जीवों की हिंसा होती है इस लिये सुरंग आदि बनाना और खनीज संपत्तिका व्यापार करनेका भी निषेध है। इस नियमका पालन करनेसे जीवों की रक्षाके साथ खनीजसंपत्तिका अनावश्यक उपयोग भी नहि होगा । मदिरा जैसी नशीली वस्तु व्यक्ति और समष्टि का अहित करती है । और तालाब सरोवर आदिका जल सूखाने के लिये जो निषेध किया गया है वह जलकाय जीवों की विरोधनासे मुक्त रखता है साथमें जल की अछत भी महसूस नही होगी। बड़े बड़े यंत्र चलानेका व्यवसाय भी आवकार्य नहीं है। आज हम देखते है की औद्योगिकरण से हमें अनेक प्रकारकी सुविधा उपलब्ध होती है, लेकिन इसी के
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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