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________________ मोक्ष चिन्तन का सैद्धांतिक पक्ष । ११५ अविद्या या मिथ्या दृष्टिकोण है जो मनुष्यों को कर्म के लिये प्रेरित करते हैं। कर्म बन्ध और उसके परिणामरूप आस्रव से प्राणी जन्म-मृत्यु की परंपरा को प्राप्त होता है। आत्मवाद संबंधी दार्शनिक भेद के होते हुए भी जैन, बुद्ध और वैदिक परंपरा का साधनामार्ग आस्रवक्षय के निमित्त ही है। सबकी दृष्टि में आस्रवक्षय ही निर्वाण प्राप्ति का प्रथम सोपान है । जैसे 'मिलिन्द प्रश्न' में राजा मिलिन्द के पूछने पर की पुनर्जन्म होगा या नहि होगा? - आचार्य नागसेन बताते हैं कि - 'सचे महाराज सऽपादानो भविस्सामि, पटिसन्दहिस्सामि, सचे अनुपादानो भविस्सामि, न पटिसन्द हिस्सामि ।' - तृष्णा के प्रत्यय से राग-द्वेष मोहादि का जो उपादान होता है - आस्रव होता है, उसके क्षय होने पर ही पुनर्जन्म की संभावना भी नष्ट होगी । जैसे उत्तराध्ययन में कहा गया है - छंदं निराहण उवइ मोक्खं । ईच्छाओं को रोकने से ही मोक्ष प्राप्त होता है। जैसे जैन परंपरा में राग, द्वेष और मोह बन्धन के मूलभूत कारण माने गये हैं, वैसे ही बौद्ध परंपरा में लोभ (राग), द्वेष और मोह को बन्धन (कर्मों की उत्पत्ति) का कारण माना गया है । जो मूर्ख लोभ, द्वेष और मोह से प्रेरित होकर छोटा या बड़ा जो भी कर्म करता है, उसे उसी को भोगना पड़ता है, न कि दूसरे का किया हुआ। इसलिए बुद्धिमान् भिक्षु को चाहिए कि लोभ, द्वेष और मोह का त्याग कर एवं विद्या का लाभ कर सारी दुर्गतियों से मुक्त हो । . - जैन दर्शन में मोक्ष मार्ग का अति सूक्ष्म रूप से प्ररूपण हुआ है । जैन दृष्टि के अनुसार - और अन्य दर्शन भी - अभिव्यक्ति की भिन्नता से अतिरिक्त - मानते हैं कि भव का कारण पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध है । जब कि संवर और निर्जरा मोक्षं के प्रत्यय है । कुंदकुंदाचार्यने पंचास्तिकाय (१२८-१३०) में इसका वर्णन किया है। संसारी जीव नाना विध कर्म करने के परिणाम स्वरूप देव-मनुष्यतिर्यंच-नारक आदि गति में गमन करता रहता है। इसकी वजह से देह धारण करता है। देह से इन्द्रिय, इन्द्रिय से विषयग्रहण, विषयग्रहण से रागद्वेष, रागद्वेष से पुनःस्निग्ध परिणाम - अर्थात् कर्मरज का आवरण, क्रमशः कर्म परंपरा और जन्म-मृत्यु का आवागमन होता रहता है । गौतम बुद्धने भी प्रतीत्य-समुत्पाद के रूप में हेतु-फल परंपरा का वर्णन क्रमशः - अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, और षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव और जाति-जरा-मरण-शोक-के रूप में किया है । तत्त्वतः दोनों का इंगित समान ही है। और वह हेतु-फल परंपरा की शृंखला को
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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