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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
इस दृष्टि से जैन परंपरा में मुक्ति के दो रूपों को भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष कहा है। रागद्वेषादि कषायों से मुक्त होना - यह भावमोक्ष है और द्रव्यमोक्ष का अर्थ निर्वाण या मरणोत्तर मुक्ति की प्राप्ति है। . बौद्ध परम्परा में इसे सोपाधिशेष निर्वाणधातु और अनुपाधिशेष निर्वाणधातु कहते है । सोपाधिशेष निर्वाण अर्थात् जो तृष्णा के क्षय से प्राप्त होती है और अनुपाधिशेष निर्वाण देहनाश के बाद प्राप्त होता है । गीता में उसका जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त रूप में वर्णन किया है ।
मोक्ष के विषय में जब हम सोचते हैं - तब हमे आत्मवाद और कर्मसिद्धांत के बारे में सोचना पड़ेगा । क्योंकि कषायों के आवरण और शरीर के बन्धनों से जो मुक्त होता है वह आत्मा है और आत्मा का शरीर धारण करना - वह कर्मसिद्धांत पर आधारित है। आत्मवाद :
जैन दर्शन की दृष्टि से द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा नित्य है और भावपक्ष की दृष्टि से अनित्य है। . . जमाली के साथ हुए प्रश्नोत्तर में महावीर ने अपने इस दृष्टिकोण को स्पष्ट कर दिया है कि वे किस अपेक्षा से जीव को नित्य मानते हैं और किस अपेक्षा से अनित्य । महावीर कहते हैं, 'हे जमाली, जीव शाश्वत है ! तीनों कालों में ऐसा कोई समय नहीं है जब यह जीव (आत्मा) नहीं था, नहीं है, अथवा नहीं होगा। इसी अपेक्षा से यह जीवात्मा नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अक्षय और अव्यय है । हे जमाली, जीव अशाश्वत है, क्योंकि नारक मरकर तिर्यंच होता है, तिर्यंच मरकर मनुष्य होता है, मनुष्य मरकर देव होता है। इस प्रकार इन नानावस्थाओं को प्राप्त करने के कारण उसे अनित्य कहा जाता ।'
बौद्ध दर्शन आत्मा अनित्य या परिवर्तनशील पक्ष पर अधिक बल देता है । बुद्ध ने अविच्छिन्न, परिवर्तनशीलचेतनाप्रवाह के रूप में आत्मा का स्वीकार किया है । वैदिक परंपरा में भी आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन हुआ है।
___ इसके साथ कर्मसिद्धांत और पुनर्जन्म का सिद्धांत भी जुडा हुआ है। प्रायः सभी दर्शन मानते हैं कि प्राणियों में क्षमता एवं धनसंपत्ति आदि की सुविधाओं का जो जन्मगत वैषम्य है उसका कारण प्राणी के अपने ही पूर्वजन्मों के कृत्य है । संक्षेप में वंशानुगत और नैसर्गिक पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कृत्यों का ही फल है । और इन कर्मों का प्रत्यय मनुष्य मन की रागद्वेषादि वृत्तियाँ हैं । इन सबके मूल में मिथ्यात्व,