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________________ ११६ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम समाप्त करने से - निरोध करने से निर्वाण लाभ होता है। ____ कुंदकुंदाचार्यने मोक्षमार्ग में बाधक बननेवाला पापास्रव का विशद् निरूपण किया है। (१३१-१४१) कार्य में प्रमाद, चित्त की कलुषित अवस्था, विषयों के प्रति तीव्र आसक्ति, अन्य को पीड़ित करना या दोष देना - ये सब पापास्रव के . हेतुरूप है । तीव्र मोह से उत्पन्न होनेवाली आहार, भय, मैथुन और परिग्रह - ये चार संज्ञायें, कषाय से उत्पन्न कृष्ण, नील, कपोत - ये अशुभ लेश्याओं की रागद्वेषजनित इन्द्रियपशता; आई और रौद्र ध्यान, अशुभ कार्यों से युक्त ज्ञान-दर्शन और चारित्र; मोहनीय से उत्पन्न मोह - यह भाव पापास्रव है । पौद्गलिक कर्मों की वजह से होनेवाले द्रव्य पापास्रव में यह भाव-पापास्रव निमित्त बनता है। इन्द्रियो, कषायो और संज्ञाओं का यथाशक्य निग्रह पापास्त्रव का निग्रह करता है। पुण्यास्रव के बारे में भी सोचना होगा । पुण्योपार्जन की क्रियायें अब अनासक्त भाव से की जाती है, तो वे शुभ बन्ध का कारण न होकर कर्मक्षय (संवर. और निर्जरा) का कारण बन सकती है । पुण्य कार्य भी आसक्तिरहित होकर, निर्लेप भाव से करना चाहिये, तभी वह मोक्ष या निर्वाण में सहायक बन सकता है । . यहीं गीता का अनासक्त योग भी चिंतनीय है और बुद्ध ने भी दृष्टांत द्वारा यही.बात कही है - "जिस प्रकार सुन्दर पुण्डरिक कमल पानी से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार पुण्य और पाप दोनों से निर्लेप होना चाहिये, दोनों से उपर उठना चाहिये।' इस तरह आस्रव, संवर, निर्जरा आदि से कर्मों का पूर्णतः क्षय होता है, तब कर्मों के अभाव से आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप में परिणत होता है। भावकर्म का सर्वथा क्षय होना भावमोक्ष है और पौद्गलिक कर्मों का क्षय होना -- द्रव्य मोक्ष है । मोक्ष की इस अवस्था में जीव इन्द्रियरहित, अव्याबाध और अनंत सुख को प्राप्त करता है और भवत्याग करता है। द्रव्यसंग्रह में भी निश्चय और व्यवहार मार्ग की दृष्टि से मोक्षमार्ग की व्याख्या इस तरह दी गई है - सम्मइंसणणाणं चरणं मुक्खस्स कारणं जाणे । ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा ॥३९॥ रयणतयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्हि । तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा ॥४०॥ सम्यगदर्शन, सम्यगज्ञान, और सम्यक्चारित्र इन तीनों के समुदाय को व्यवहार से मोक्ष का कारण जानो । तथा निश्चय से सम्यगदर्शन, सम्यगज्ञान और
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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