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________________ १०४ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम है। प्राकृतिक वस्तुओं - प्रभात, संध्या, रजनी, चन्द्रमा, नदी, सागर, पर्वत आदि से लेकर स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग - मुख, केश, नाक, आँख, अधर, उरोज, बाहु, त्रिवली, उरु, पाद आदि के रसपूर्ण वर्णन में कवि की रुचि प्रगट होती है। अवसर मिलने पर रति-क्रीडा वर्णन से भी मुख नहीं मोडा है । इसी तरह युद्ध-वर्णन में भी उन्होंने रण-प्रयाण से लेकर उसके समस्त कौशलों का वर्णन आयुधों के नाम गिनाते हुओ किया है। अपने धर्म के प्रचार के प्रति अत्यधिक सजांग होते हुए भी जैन कवियोंने जीवन की वास्तविकताओं की उपेक्षा नहीं की है। चरित्र नायक के जीवन के आलेखन में परिवर्तन करना संभव नहीं था, इस लिये शायद अपनी. कल्पनाओं से प्रचुर वर्णनों करके अपनी कवित्वशक्ति का परिचय दिया है। प्रेम और युद्ध के वर्णनों में कल्पनाचित्र और अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन भी मिलते हैं। ___ कविने धार्मिक और साहित्यिक आदर्शों की पृष्ठभूमि की सीमाओं में रहकर, अपने पात्रों और चरित्रनायक की परंपरागत विशेषताओं को चित्रित करने में काफी . सफलता पायी है। वाग्विदग्धता और मार्मिक आलेखन से पात्रों का निरुपण हृदयग्राही और प्रभावक बना है । जैसे एक चित्रकार दो-तीन बार के तुलिका - संचालन से एक सजीव चित्र प्रस्तुत करता है, इसी तरह कवि के चरित्रांकन से चरित्र का ए ह चित्र उभरता है । अपनी उर्वर कल्पना के सहारे कवि ऐसी उपमाएं या उत्प्रेक्षाओं की सहाय लेते हैं कि पात्र सजीव हो उठते हैं - मानों चक्षु-गोचर से ही लगते हैं। ___ चरित्रों के ऐसे रूपांकन में कवि की प्रतिभा निखरती है । कभी कभी विशिष्ट पात्रों के प्रचलित आदर्शों को पात्र में आरोपित करते हैं। जैसे अश्वपुर के राजा वज्रवीर्य का सर्वगुण संपन्नता इस तरह प्रगट की गई है -. प्रवर्तिते यत्र गुणोदयावहे यागसि मानवेहिता। नवहिता क्रान्ता मदो न वैभवा नवैभवाति प्रथपंति जंतवः ॥ विशेष वादी विदुषां मनीषितो निरस्य दोषनषित् पुरोत्तमम् । तदष यं संज्ञदि वज्रवीर्य इन्युदाहरंति श्रुतवर्त्मवादिनः ॥ (सर्ग ४-६७, ६८) .... इस प्रकार नाना गुणों से शोभित उस अश्वपुर का स्वामी, विद्वानों में श्रेष्ठ राजा वज्रवीर्य था, जिसने कि अपने शासनबल से उस पुर के समस्त दोष. दूर कर दिये थे। जिस समय गुणों का भंडार, दया का आगार, पुण्यशाली वह राजा राज्य कर रहा था उस समय लोगों की इच्छायें नवीन नवीन अभीष्ट पदार्थों के आ जाने से पूर्ण हो गई थी। उनका वैभव-प्रवाह बढ़ गया था। इसलिए उसके राज्य
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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