SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री वादिराजसूरिकृत. पार्श्वनाथचरित का साहित्यिक मूल्यांकन १०३ अलौकिक तत्त्वों का समावेश भी अवश्य कराया जाता हैं । अतिप्राकृत घटनाओं और क्रियाकलाप का प्रदर्शन कहीं देवताओं के द्वारा कराया जाता है तो कहीं दानवों के द्वारा और कहीं इन दोनों से भिन्न योनि के जीवों द्वारा, जैसे किन्नर, गन्धर्व, यक्ष, विद्याधर, अप्सरा आदि । - महाकाव्य में विविध अलंकारो की योजना होती है, उसकी शैली गरिमापूर्ण और कलात्मक होती है । उसमें विविध छंदो के प्रयोग का विधान होता है और उसकी भाषा उसकी गरिमामयी उदात्त शैली के अनुरूप तथा ग्राम्य शब्द-प्रयोग दोष से मुक्त होती है । संस्कृत महाकाव्य का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों फलों की प्राप्ति हैं । श्री पार्श्वनाथ चरित में महाकाव्य के कई लक्षण विद्यमान हैं । वह सर्गबद्ध रचना हैं, कथावस्तु सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त है; काव्यनायक भारतीय संस्कृति के मूलाधाररूप युग पुरुष है; भाषा साहित्यिक, ग्राम्यत्वदोषरहित, पांडित्यपूर्ण, प्रांजल और प्रौढ़ है; जीवन की विविध अवस्थाओं और अनुभूतियों का चित्रण यहाँ प्राप्त है; प्रकृति के अनेक दृश्यों और वस्तु वर्णनों से अलंकृत है; अलंकारों की योजना है और जीवन के चरम उद्देश्य की महान सिद्धि की उच्च भूमि पर शान्तरस में उसका पर्यावसन होता है । इस तरह महाकाव्य के लक्षणों से संपन्न होने के साथ 'श्री पार्श्वनाथ के अनेक पूर्वभवरूप अवान्तर कथाओं के सहित उनके चरित्र का वर्णन कीया गया है ।' अन्य महाकाव्यों में समानरूप से जो कुछ विशेषताएं पायी जाती है, ये 'सब श्री पार्श्वनाथ चरित में भी है। जैसे तीर्थंकरो की स्तुति से काव्य का प्रारंभ होना, पूर्व कवियों और विद्वानों का स्मरण, सज्जन- प्रशंसा, दुर्जन- निन्दा, काव्यरचनामें प्रेरणा और सहायता करनेवालों की स्तुति, विनम्रता- प्रदर्शन, काव्य-विषयक के महत्त्व का वर्णन, चरित्र - नायक और उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों के विभिन्न भवान्तरों का वर्णन कथा के आवश्यक अंग के रूप में यहाँ भी प्राप्त होता है । भवान्तर वर्णन का मुख्य कारण जैनों की कर्म-फल प्राप्ति में अचल आस्था है । परिणाम स्वरूप यह काव्य रोमांचक शैली से युक्त होने पर भी वैराग्यमूलक और शान्तरस पर्यवसायी है । + इस महाकाव्य का उद्देश्य जैन तीर्थंकर के चरित्र वर्णन से जैनधर्म का प्रचार करने का है तथापि उनमें प्रेम और युद्ध का वर्णन पर्याप्त से अधिक मात्रा में मिलता
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy