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________________ बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम हमारे व्यक्तिगत जीवन में विषयभोग के प्रति तृष्णा राग-द्वेष-मोह-आदि क्लेषादि भावरूप वृत्तियाँ और विचारधारायें है, जिनके कारण समाज में हिंसा उत्पन्न होती है । वेरभाव, घृणा, आक्रमकता, विद्वेष आदि वृत्तियाँ सामाजिकता की विरोधी हैं । प्राकृत साहित्य में इसके बारे में अनेक प्रतीकात्मक वर्णन मिलते हैं । जैसे 'कुवलयमाला की कथा में मान, मोह, मद, लोभ और क्रोध की वृत्तियों की विरूपता का वर्णन बड़े मार्मिक ढंग से किया गया है, और शांति एवं संवादिता की स्थापना के लिए प्रेम, मैत्री, मार्दव और अहिंसा आदि का महत्त्व भी सूचित किया है । सामाजिक जीवन में व्यक्ति का अहंकार भी निजी लेकिन महत्त्व का स्थान रखता है। शासन की इच्छा या अधिपत्य की भावना इसके केन्द्रित तत्त्व हैं । इसके कारण सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है। शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता - निम्नता के मूल में यही कारण है। वर्तमान समय में अति विकसित और समृद्ध राष्ट्रोंमें जो अपने प्रभावक क्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है - साम्राज्यवृद्धि की वृत्ति है, उसके मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टिका प्रयत्न है। स्वतंत्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में होता हैं। जब व्यक्ति - के मन में आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना उद्बुद्ध होती है तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है, उसे अपने प्रभाव में रखने का प्रयास करता है । जैन और बौद्ध दोनों दर्शनों ने अहंकार, मान, ममत्व के प्रहाण का उपदेश दिया है, जिसमें सामाजिक परतंत्रता का लोप भी निहित है । और अहिंसा का सिद्धांत भी सभी प्राणियों के समान अधिकारों को स्वीकार करता है । अधिकारों का हनन भी एक प्रकार की हिंसा है । अत: अहिंसा का सिद्धांत स्वतंत्रता के सिद्धांत के साथ जुड़ा हुआ है। जैन एवं बौद्ध दर्शन एक ओर अहिंसा - सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पूर्ण समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर समता के आधार पर वर्गभेद, जातिभेद एवं ऊँच-नीच की भावना को समाप्त करते हैं । शांतिमय समाज की स्थापना के लिए व्यक्ति का नीतिधर्म से प्रेरित अहिंसापूर्ण आचार ही महत्त्व का परिबल है । अहिंसा आध्यात्म की सर्वोच्च भूमिका है उसी के आधार से व्यक्ति और समष्टि के जीवन में शांति और संवादिता सुस्थापित हो सकती है । अहिंसा की अवधारणा बीजरूप में सर्व धर्मों में पायी जाती है । अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना एवं अद्वैतभावना है । समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से शांतिमय सहअस्तित्व संभव बनेगा | ९६
SR No.002239
Book TitleBauddh aur Jain Darshan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjana Vora
PublisherNiranjana Vora
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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