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प्राकृत भाषा साहित्य में निरुपित शांतिमय सहजीवन की संकल्पना
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जं इच्छसि अप्पणतो, जं चण इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छा परस्स वि मा, एत्तियेगं जिणसासणं ॥
(बृहत्कल्पभाष्य - ४५-४) तुम अपने लिए जैसा चाहते हो, वैसा तुम औरों के लिए भी चाहो । अपने लिए जो नहीं चाहते, उसे औरों के लिए भी मत चाहो । आचारांग में बताया है -
सव्वेसि जीवितं पियं । (आचारांग - १-२-३-४) और भी कहा गया है -
सव्वे जीवा वि इच्छति, जीविउं ण मरिजिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वाज्जयंति णं ॥
(दशवैकालिक - त्र) . सभी प्राणी जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता । अतः निग्रंथ घोर प्राणीवध को वर्ण्य मानते हैं ।
बुद्ध और महावीर के समय में ब्राह्मण शब्द ज्ञातिवाचक बन गया था, उसकी यथार्थ व्याख्या महावीर और बुद्धने बहुत समानरूप से दी है। मानव जन्म से नहि, कर्म से श्रेष्ठ होता है । जन्म से नहीं कर्म से ब्राह्मण बनता है । समभाव से श्रमण होता है और अहिंसादि व्रत और पंचशीलों के पालन से ही ब्राह्मण बनता है। जैसे महावीर स्वामीने कहा है -
तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थापरे ।। जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूमि माहणं ॥ (उत्तरा. अ. २५, गाथा-२३)
जो बस और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर उनकी मन, वचन और काय से. हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। ....मैत्री भावना के बारे में भी कहा गया है 'मेत्ति भूअसू कप्पो ।' - सब के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखो । और
खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्ति मे सव्व भूअसु, वेरं मझं ण केण वि ॥ इसी अर्थ में यहाँ अहिंसा परमो धर्मः - अहिंसा को ही परम धर्म कहा
गया है।