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________________ को बढ़ाने के लिए तथा मन एवं इन्द्रियों को वश में करने के लिए, उन मुनिराज के समक्ष सदा अंगपूर्व एवं प्रकीर्णकों का अभ्यास करते रहते थे । वे मुनिराज कर्मों को नष्ट करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार, संकचित हृदयवालों को भय उत्पन्न करानेवाले, अत्यन्त कठिन बारह प्रकार के तपश्चरण विधिपर्वक करते थे। शरीर से ममत्व दूर करने के लिए तथा अशुभ कर्मरूपी वन को जलाने के लिए, अग्नि के समान कभी पन्द्रह दिन का, कभी महीने भर का या कभी इससे भी अधिक दिन का कायोत्सर्ग किया करते थे । वे | मुनि आर्त-ध्यान एवं रौद्र-ध्यान का त्याग कर मनरूपी हाथी को वश में करने लिए सिंह के समान धर्म-ध्यानादि का ही रात-दिन आचरण करते रहते थे । मुनियों के आचरण को विशुद्ध रखने के लिए वे मुनिराज प्रमाद-रहित हृदय से सुख के सागर मूल-गुण एवं उत्तर-गुणों का नियमानुसार पालन करते थे ॥१७०॥ वे चतुर मुनि मोक्ष के निमित्त उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों को धारण करते थे एवं वैराग्य बढ़ाने के लिए अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तवन करते थे । वे मुनि ध्यान एवं अध्ययन के लिए गुफा, पर्वत, श्मशान, वन एवं सूनी बस्ती आदि में सदा अकेले निवास करते थे । श्रेष्ठ मोक्ष-मार्ग से कभी विचलित न हो जायें, इसलिये वे धीर-वीर तपस्वी भूख-प्यास आदि से उत्पन्न होनेवाले दुःखदायी घोर बाईस परीषहों को जीतते थे । वे स्वर्ग-मोक्ष के सुख प्राप्त करने के लिए मधुर वचनों से धर्म की इच्छा रखनेवाले भव्य-जीवों को धर्मोपदेश दिया करते थे। वे मुनिराज ध्यान-अध्ययन आदि की सिद्धि के लिए प्रमादों को त्याग कर रात-दिन निर्जन स्थान में सदा जाग्रत हो रहते थे । वे जितेन्द्रिय मुनिराज कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करने के लिए एवं चिर-स्थायी मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार का काय-क्लेश सहन करते थे उन्होंने अवधिज्ञान के द्वारा अपनी आयु को अल्प जान कर विधिपूर्वक चारों प्रकार की आराध नाओं का आराधन किया। तीस दिन तक सन्यास धारण किया एवं धर्म-ध्यान तथा पूर्ण समाधिपूर्वक अपने प्राणों का त्याग किया। वे अपराजित मुनीश्वर अपने तपश्चरण के प्रभाव से अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग ८४ में सब ऋद्धियों से भरपूर 'अच्युतेंद्र' नाम के इन्द्र हुए बड़ी ऋद्धि को धारण करनेवाले उस इन्द्र ने बड़ी सुन्दर शिलाओं के सम्पुट में रनों की दिव्य एवं कोमल शैय्या पर जन्म लिया था ॥१८०॥ अतमुहूर्त में ही वह यौवन अवस्था को प्राप्त हो गया एवं चैतन्य होकर सब दिशाओं की ओर देखने लगा था। चारों ओर देख कर वह विचार में पड़ गया कि क्या वह इन्द्रजाल है; स्वप्न है या मायामय भ्रमजाल है ? यह 444 944
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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