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________________ Fb PFF अथानन्तर-अनन्तवीर्य के निधन के कारण उसके वियोग-जनित शोक से 'बलभद्र' अपराजित को गहरा दुःख हुआ। उसकी दशा ऐसी हो गयी, मानो उसे पिशाच ने ही पकड़ लिया हो । परन्तु वह धीर-वीर कुछ देर बाद ही अपनी विवेक रूपी तलवार से कठिन शोक रूपी शत्रु को नष्ट करने में समर्थ हुआ एवं अपने मन में संसार के विचित्र रूप का चिन्तवन इस प्रकार करने लगा । मनुष्यों के महामोह उत्पन्न करनेवाली राज्य-लक्ष्मी मायारूपिणी है एवं बिजली के समान अत्यन्त चन्चला है । स्त्री, भाई, पुत्र आदि परिवार के लोग सब क्षणस्थायी हैं; ये सब अपने कर्म के उदय से अतिथि के समान आकर एकत्र हुए हैं । यह प्राणी अपनी इन्द्रियों के द्वारा ठगा गया है; वे इन्द्रियाँ अनायास धर्मरत्न को चुरा कर मनुष्य को नरक में पहुँचा देती हैं । यह मनरूपी हाथी विषय रूपी वन में फिरा करता है एवं निरंकुश होकर धर्म रूपी कल्पवृक्ष को उखाड़ फेंकता रहता है । यह दुष्ट आशा पिशाचिनी के समान मूर्ख लोगों को जकड़ लेती है एवं विषय रूपी माँस खाकर भी तृप्त नहीं होती । जिस शरीर का अन्न, पान एवं आभूषणों से सदा पालन-पोषण किया जाता है, जिसे एकमात्र अपना ही समझा जाता है; आश्चर्य है कि वह भी जीव के साथ नहीं जाता । फिर भला अन्य पदार्थों की तो बात ही क्या है ? ये सूर्य-चन्द्रमा रूपी दोनों बैल दिन-रात रूपी घण्टी यन्त्र के द्वारा मनुष्यरूपी कुएँ से आयुरूपी जल को सदा निकालते रहते हैं । जब तक शरीर स्वस्थ है, तब तक इन्द्रियाँ का बल बना हुआ है । इसलिये जब तक आयु नष्ट नहीं होती, तब तक मनुष्यों को अपना हित कर लेना चाहिये ॥२६०॥ यदि दुर्भाग्य से आयु नष्ट हो गई, तो फिर केवल हाथ मलना हो शेष रह जाता है और मनुष्यों का बहुमूल्य महारत्न 'मनुष्य-जीवन' अपने ही हाथों नष्ट हो जाता है। इस प्रकार चिन्तवन करने से उनकी आत्मा का भला करनेवाला तथा देह-भोग तथा संसार-भोग की विरक्ति से उत्पन्न होनेवाला वैराग्य उनके हृदय में दूना हो गया । उनकी भोगों की इच्छा जाती रही एवं मोक्ष सिद्ध करने की इच्छा प्रबल हो गई । उन्होंने सज्जनों द्वारा त्याग करने योग्य राज्य अनन्तवीर्य के पुत्र अनन्तसेन को दे दिया । तदनन्तर जिनका मन मोक्ष में लगा हुआ है एवं संवेग आदि गुण जिनके बढ़े हुए हैं, ऐसे वे बलभद्र तपश्चरण धारण करने के लिए शीघ्र ही यशोधर मुनि के पास पहुँचे । उन्होंने संसाररूपी सागर को पार कराने के लिए नाव के समान उन मुनिराज के दोनों चरण-कमलों को नमस्कार किया एवं उनकी आज्ञानुसार दोनों प्रकार का परिग्रह त्याग कर संयम धारण किया। तदनन्तर वे संयमी अपना ज्ञान 444.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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