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________________ EFb PF F जाने से जिसके शरीर में असह्य वेदना हो रही है, ऐसा वह नारकी विश्राम पाने की अभिलाषा के दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है । परन्तु वहाँ पर भी दुःख देनेवाले सिंह, बाघ आदि क्रूर जानवर अपने तीक्ष्ण नख-दाढ़ों से उस नारकी को छिन्न-भिन्न करना प्रारम्भ कर देते हैं । इस प्रकार वह नारकी अपने पाप-कर्म के उदय से अविराम उत्पन्न होनेवाले असह्य धाोर दुःखों को सहता रहता है । वहाँ पर भूख इतनी प्रचण्ड लगती है कि संसार के समस्त धान्य से तथा पुद्रलों से भी शान्त नहीं होती । वह भूख असह्य, तीव्र हृदय-विदारक होती है। परन्तु खाने के लिए उसे तिल मात्र भी भोजन नहीं मिलता; वह सदा उस भूख से उत्पन्न हुए तीव्र दुःख को केवल सहता ही रहता है । वहाँ पर प्यास इतनी लगती है कि अनेक समुद्रों के अगाध जल से भी शान्त न हो, वह तीव्र प्यास उसके सब शरीर को जलाती रहती है एवं सारे रस को सोख लेती है ॥१४०॥ परन्तु उसे शान्त करने के लिए उसे कभी पानी की एक बूंद भी नहीं मिलती, उसका समस्त तन प्यास से सदा व्याकुल बना रहता है । संसार में दुःख देनेवाले जो असंख्य रोग हैं, वे सब उसके शरीर में स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं । नरक उष्ण है तथा उसमें इतनी गर्मी है कि यदि उसमें एक लाख योजन प्रमाण लोहे का गोला डाल दिया जाए, तो वह भी पिघल कर तरल हो जायगा । इस प्रकार त्रिखण्डी अनन्तवीर्य का जीव रत्नप्रभा नामक नरक में पड़ कर पहिले उपार्जन किये हुए पाप के फल से प्रतिक्षण बिना किसी अन्तर के तीव्र दुःख भोगने लगा-क्षेत्र सम्बन्धी दुःख, तीव्र उष्णता के दुःख, नारकियों के द्वारा दिये हुए शारीरिक, मानसिक एवं वाचनिक ऐसे तीनों प्रकार के दुःख विक्रिया ऋद्धि से उत्पन्न हुए दुःख, अत्यन्त बैर-भाव एवं कु-ज्ञान से उत्पन्न हुए दुःख, कवियों की वाणी से भी अकथ्य अत्यन्त भयानक असुरों के द्वारा दिये गए दुःख; कुटिल हृदय, आर्त, रौर्द्र एवं अशुभ लेश्या आदि से बढ़े हुए दुःख सिंह-बाघ आदि मांसभक्षी पशुओं के द्वारा दिये गए दुःख तथा शोक से उत्पन्न दुःख-इत्यादि अनेक प्रकार के दुःखों को वहे भोगने लगा । उसे वहाँ पर क्षण भर भी सुख नहीं मिलता था, वह केवल छेदन-भेदन आदि से उत्पन्न दुःख ही सदा भोगा करता था । बहुत वर्णन से क्या लाभ ? संसार में जितने भी दुःख हैं, वे सबके-सब स्वभाव से ही एकत्र होकर नारकियों को प्राप्त होते हैं । केवलज्ञानियों को छोड़ कर नरकों के दुःखों का वर्णन. अन्य कोई नहीं कर सकता, यही समझ कर अब हम शान्त हो जाते हैं ॥१५०॥
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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