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________________ 4 Fb PFF तपश्चरण से स्वर्ग प्राप्त किया तथा अनन्त सुख का सागर मोक्ष प्राप्त किया । परन्तु मुझ दुष्ट ने उत्तम धर्म को त्याग कर पाप सम्पादन किया था, इसीलिए मुझे भयानक नरकों के सम्पूर्ण दुःख प्राप्त हुए हैं ॥१२०॥ आज मैं कहाँ जाऊँ? कहाँ रहूँ? क्या कहूँ? किससे जाकर पूछू एवं इन दुःखों से बचने के लिए किसकी शरण लूँ? मैं किसका स्मरण करूँ? इस अथाह दुःख के महासागर से मैं कैसे पार होऊँगा एवं आयु के पूर्ण हुए बिना इस नरक से मेरा निकलना किस प्रकार सम्भव होगा ? जिस प्रकार तेल के संयोग से अग्नि तीव्रतर होकर भड़क उठती है, उसी प्रकार अपने किए दुष्कर्मों का बार-बार चिन्तवन करने से उसके हृदय की वेदना अधिक उग्रतर हो भड़क उठती । उसी समय उस नये नारकी को देख कर अनेक दुष्ट दुराचारी नारकी आ कर अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्रों से उसे मारने लगे । कितने ही नारकी मुद्गरों से उसके हड्डियों के समस्त ढाँचे को चूर्ण-विचूर्ण करने लगे, कितने ही उसकी आँखें निकालने लगे एवं कितने ही उसकी अंतड़ियों को नोचने लगे । कितने ही नारकी उसके शरीर को आरे से चीर कर दो टुकड़े कर देते एवं कितने ही दुर्बुद्धि नारकी बिना किसी प्रकार की दया के दुःख देने के लिए उसके शरीर एवं मर्मस्थान को काट डालते, उसके हाथ-पैरों को काट डालते, शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालते एवं वे दुष्ट उन टुकड़ों के भी तिल के समान छोटे-छोटे टुकड़े कर डालते । जिस प्रकार लाठी के द्वारा प्रहार करने पर जल की बूदें ऊपर उछल कर पुनः उसी जल-धारा में आकर मिल जाती हैं, उसी प्रकार उसके शरीर के अलग-अलग टुकड़े उसी समय पुनः एकत्र होकर मिल जाते हैं । अशुभ-कर्म के उदय से दुःखरूपी महासागर में डूबे हुए नारकियों की आयु जब तक पूर्ण नहीं होती, तब तक उनकी मृत्यु भी नहीं हो सकती । कितने ही नारकी उसे उठाकर गरम तेल की कढ़ाई में डाल देते एवं उसे उष्णता का अत्यन्त तीव्र दुःख सहना पड़ता ॥१३०॥ वहाँ पर उसका सब शरीर जल जाता, इसलिये कुछ ठण्डक पाने के लिए वह स्वयं वैतरणी नदी के खारे एवं खून से रंगे अपवित्र जल में डूब जाता । परन्तु उस जल के स्पर्श मात्र से || ही उसके सारे शरीर में दुर्गन्धमय दाह उत्पन्न होता एवं फिर उसके कारण अत्यन्त तीव्र दुःख होता । वहाँ से सन्तप्त होकर अशुभ-कर्मों द्वार ठगा हुआ वह नीच आराम पाने की इच्छा से स्वयं ही असिपत्रयुक्त वृक्षों के घने वन में जाता । परन्तु वहाँ पर भी वायु के प्रबल झकोरे से उन वृक्षों से तलवार के समान तीक्ष्ण पत्ते गिरते हैं एवं उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। शरीर के छिन्न-भिन्न एवं टुकड़े-टुकड़े हो 444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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